
किसी नगर में ब्रह्मदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसको किसी आवश्यक कार्य से एक दिन किसी अन्य ग्राम को जाना था। उसने जब अपनी माता से गांव जाने की बात कही तो उसकी मां ने कहा, “अकेले मत जाना, किसी को साथ ले लेना।”
बेटा बोला, “मां! चिन्ता मत करो। रास्ता भी ठीक ही है और मुझे जाना जरूरी है, इसलिए अकेला ही जा रहा हूं।” मां का मन नहीं माना। वह समीप के जलाशय में गई और वहां से एक केकड़े को पकड़ लाई। उसे अपने पुत्र को देती हुई बोली, “बेटा! लो, इसे साथ ले लो। मार्ग में यह तुम्हारा सहायक सिद्ध होगा।”
माता की आज्ञा मानकर उसने उस केकड़े को लिया और कपूर की डिबिया में रखकर उसे थैले में डाल दिया। इस प्रकार वह वहां से चला गया। कुछ दूर जाने पर जब दोपहर की धूप बड़ी तेज हो गई तो वह रास्ते में एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगा। उसे उसी प्रकार विश्राम करते हुए नींद आ गई।
कुछ देर बाद वृक्ष के कोटर से एक सर्प निकला और वह ब्राह्मण के पास आया। सर्प को कपूर की महक अच्छी लगती है। उसने उस ब्राह्मण को तो नहीं छेड़ा पर उसके थैले को फाड़कर कपूर तक पहुंच गया। उसने ज्यों ही कपूर की डिबिया खोली कि केकड़े ने बाहर निकलकर उस सर्प को मार डाला।
नींद खुलने पर ब्राह्मण की दृष्टि वहां पर मरे पड़े सर्प पर गई। समीप ही कपूर की डिबिया खुली थी। ब्राह्मण समझ गया कि इस केकड़े ने ही सर्प को मारा होगा। उस समय उसको माता का कथन याद हो आया। तब उसको अपने सहयात्री का महत्व भी समझ में आ गया। उसके बाद उस ब्राह्मण ने अपनी आगे की यात्रा पूर्ण की। इसलिए कहा जाता है कि यात्रा के समय साथ में रहने वाला अत्यन्त निर्बल व्यक्ति भी सहायक ही होता है।
(साभारः पंचतंत्र की कहानियां
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