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मंगलवार, 16 जून 2009

चश्मा - हिमांशु जोशी




मैंने अभी घर की देहरी पर पाँव रखा ही था कि शाश्वत ने धनी की तरफ, शिकायत से देखते हुए कहा, ‘कह दूँ, दादाजी से...’ रहस्यमय ढंग से वह धनी की ओर देखता रहा, देर तक!

धनी अचकचाया. शायद इस अप्रत्याशित आक्रमण के लिए तैयार नहीं था. बोला कुछ भी नहीं पर उसके मन का दबा हुआ आक्रोश रह-रहकर आँखों की राह झाँक रहा था.

बर्फ़ की फ़ुहारों से भीगा मफ़लर, दस्ताने दरवाज़े के पास रखे स्टैंड पर रखता हूँ. फिर चमड़े का लंबा कोट भी जतन से! जिसमें से पिघलती बर्फ़ का पानी बूँद-बूँद निथर रहा था.

पॉलिथिन के बैग में लिपटी पुस्तकें मेज़ पर रख देता हूँ और फिर दीवार पर टँगी घड़ी पर मेरी निगाहें अटक आती हैं.

‘‘किसी का फ़ोन तो नहीं आया?’’

‘‘आया था. धनी ने उठाया और ‘दादा जी अभी नहीं हैं,’’ कहते हुए खट् से रख दिया था.’’ शाश्वत के स्वर में कहीं शिकायत का सा भाव था.

‘‘और किसी का नहीं? मैंने जिज्ञासा से फिर पूछा.

‘‘आए तो थे-तीन-चार. पर धनी ने पूरी बात सुने बिना ही काट दिए थे...’’ इस बार श्रीमती जी का स्वर था. वह पानी का गिलास मेज़ पर रख कर फिर तेज़ कदमों से रसोईघर की तरफ चली गईं. जहाँ चूल्हे पर किसी वस्तु के जलने के कारण दुर्गंध सी फैल रही थी.

‘‘अरे, यह तो पूछ लेते कि था किसका?’ मेरे स्वर में तनिक तल्खी थी. ‘कई लोगों से कई तरह के काम होते हैं! व्यर्थ में थोड़े ही कोई यों ही फ़ोन करता है?’’

‘ये बच्चे सुनें, तब न! धनी तो फ़ोन की घंटी बजते ही, आँखें मूंद कर भागने लगता है, रिसीवर उठाने के लिए...’’ श्रीमती जी किचन से ही, आवाज़ लगाती हुई कहती हैं.

मैं कुर्सी पर धम्म से बैठ जाता हूँ. तौलिए से हाथ-मुँह पोंछता हुआ कहता हूँ, ‘‘कल विकल्प कह रहा था तीन-चार बार फ़ोन किए, पर बात हो न पाई. निहाल भाई घर आने का कार्यक्रम बना रहे थे, पर संपर्क ही न हो सका...!’’

दिन भर की भाग-दौड़ से थका, यों ही पाँव लम्बे कर लेता हूँ. आँखे मूँदे कुर्सी पर ही लेट सा जाता हूँ.

तभी अहसास होता है, जैसे मेरे हाथों में, किसी के, नन्हें से कोमल गरम हाथों का स्पर्श सा हुआ.
सहसा मेरी आँखें खुलती हैं. शाश्वत कुर्सी के हत्थे के सहारे खड़ा है!

‘कौन शाशा?’ मैं चौंक कर कहता हूँ.

शाश्वत अभी भी चुप था. कुछ क्षण सन्नाटा रहा.

तभी शाश्वत ने मौन भंग करते हुए कहा, ‘दादा जी, यह धनी बहुत शैतानी करता है. आपकी लिखने वाली मेज पर, शॉल ओढ़कर, आपकी तरह बैठता है. आपकी तरह, पेन पकड़ कर, आपकी तरह कुछ लिखने-सा लगता है. मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही, ग़ुस्से से देखता हुआ कहता है, ‘‘देखते नहीं, अब मैं हिमांशु जोशी हो गया हूँ-दादाजी हूँ...! शोरगुल कतई नहीं!’’

‘‘इस पर दादी और मम्मी हँसती हैं तो वह और अकड़ कर कहता है,‘‘मैं दादा जी से भी अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ...’’

‘‘अरे, तुम्हें तो अभी कलम पकड़ना भी नहीं आता’’ कहता हूँ तो वह मारने के लिए दौड़ता है...!’’
मैं खिड़की के शीशे के उस पार, चिड़ियों को बरामदे की रैलिंग पर बैठ कर बतियाती हुई देखता हूँ. आश्चर्य होता है, ये गौरय्या भारत के हर भागों में ही नहीं, इधर नॉर्वे जैसे बर्फीले इलाकों में भी होती हैं.
मेरा ध्यान बच्चों की बातों में कम और इधर-उधर की बातों में अधिक भटक रहा है. कल सेमिनार में भाग लेने, विश्वविद्यालय जाना है. ‘पत्रिका’ के लिए संपादकीय लिख कर, फैक्स से भारत भेजना है. भौमिक परसों डेनमार्क चला जाएगा, उससे मिलना है.

****

पता नहीं क्यों, इस बार नॉर्वे आने पर बहुत कुछ बदला-बदला सा लगता है. स्वयं अपने पर भी कुछ कम बदलाव नहीं! पहले शरीर पर समय का असर कम प्रतीत होता था, पर अब कुछ अधिक लगने लगा है!

ओस्लो हवाई अड्डे की नव निर्मित मुख्य इमारत से बाहर कार पार्किंग तक की कुछ दूरी खुले में पार करनी होती है. चारों ओर बर्फ़ की सफेद चादर सी बिछी थी. बर्फ़ भी ताजी नहीं, जमकर ठोस शीशे की तरह कठोर! बर्फ़ पर चलने का अभ्यास न होने के कारण, अभी चार-छह कदम ही आगे बढ़ पाया कि पता नहीं कैसे पाँव लड़खड़ाए, संतुलन बिगड़ा, और मैं बर्फ़ पर चारों खाने चित्त!

बड़ी मुश्किल से उठाया और कार तक पहुँचाया. गाड़ी में बैठकर, साँस में साँस आई. चोट तो नहीं लगी थी, पर लगता था, ठंड के कारण घुटनों का दर्द कुछ बढ़ सा गया है.

अभी कार मुख्य मार्ग तक पहुँच भी न पाई थी कि मेरा ध्यान चश्मे की ओर गया. उसके बाईं तरफ का शीशा नदारत था. संभवतः वहीं कहीं गिर गया हो, जहाँ मेरे पाँव रपटा था. मैंने चश्मे को वैसे ही पहन लिया, कम से कम कुछ तो दिखेगा!

‘‘कल बाज़ार से बनवा लेंगे...’’ शशिर ने कहा,‘‘हाथों हाथ मिल जाएगा...’’

दूसरे दिन ‘स्टूटिंग’ होते हुए बाज़ार पहुँचे. चश्मे की एक भव्य दुकान पर. डॉक्टर ने अनेक बार, अनेक तरह के यंत्रों से आँखों को उलट-पटल कर देखा. सारे टेस्ट करने के पश्चात, अंत में जोड़-घटाने के बाद कहा,‘‘करीब छह हज़ार क्रोनर लगेंगे...’’

‘‘छह हज़ार क्रोनर! यानी 36 हज़ार रुपए से भी अधिक!

‘‘कुछ और दुकानें भी हैं! वहाँ भी पूछ लेते हैं...’’ शिशिर ने सुझाव दिया.

हम बाहर आते हैं. ‘सीटी सेंटर’ की मार्केट टटोलते हैं. वहाँ भी स्थिति लगभग वैसी ही है!

****

शाम को हम बैठे थे. दूरदर्शन पर कोई कार्यक्रम था. शिशिर बार-बार मेरी ओर देख रहा था. उसे लगा कि शायद मुझे देखने में कठिनाई हो रही है.

‘‘बाबू जी, कल शाम को बोलर जाएंगे. वहाँ मेरे एक टर्किश दोस्त की दुकान है. पैसे की बात न सोचिए. यहाँ ऐसा ही चलता है. रुपयों के हिसाब से जोड़-घटाना करेंगे तो सब मुश्किल हो जाएगा...’’

‘‘अरे भई, इत्ती सी बात के लिए क्यों परेशान हो रहे हो? कुछ ही दिनों के लिए यहाँ आया हूँ. भारत पहुँच कर बनवा लूँगा. एक चश्मे पर इतनी राशि खर्च करना मुझे समझदारी नहीं लगती. बिना चश्मे के भी मेरा काम आसानी से चल जाता है. पढ़ने-लिखने के समय, मैं यों भी कभी-कभी चश्मा उतार लेता हूँ. हाँ, बाहर चलते समय कुछ असुविधा अवश्य होती है-कभी, पर ऐसी कोई समस्या नहीं...!’’

****

शाम को मैं अपने कमरे में बैठा था. इतने में धनी आया और चुपचाप सामने वाली कुर्सी में बैठ गया.
तभी मुझे कुछ याद आया,‘धनु, शाशा बतला रहा था कि तुमने कहा कि मैं दादा जी से भी अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ...!’’

वह इस प्रश्न पर शर्माया नहीं, बल्कि आत्मविश्वास से मेरी ओर देखता रहा. स्वीकृति में उसने मात्र सिर हिला दिया.

‘‘यहाँ छह साल के कम उम्र के बच्चों को तो लिखना-पढ़ना भी नहीं सिखाते. अभी तुम ने पाँच भी पूरे नहीं किए, फिर कैसे लिखते हो...?’’

‘‘मैं बोल कर कहानी सुना देता हूँ...’’

‘‘किस की कहानी सुनाते हो?’’

‘‘मछली की. चिड़िया की. नदी की. छेर की...’’

क्षण भर का मौन तोड़ते हुए, जिज्ञासा से कहता हूँ,‘‘अच्छा शेर की सुना दो.’’

‘‘छेर की...’’इतना कह कर वह चुप हो जाता है!

‘‘अच्छा, सुनिए!’’ वह आगे कहता है.

‘‘एक छेर का बच्चा था! बेबी छेर! एक उसकी मम्मी थी. एक उसके पापा थे. तीनों एक बड़े पत्थर पर बैठे धूप सेंक रहे थे. चारों तरफ बर्फ़ थी. सामने घना जंगल था. कुछ भेड़ें घास चर रही थीं.
तभी एक शैतान लोमड़ी आई. भेड़ों को डॉटने-डराने लगीं. भेड़ें डर के मारे इधर-उधर भागने लगीं.
बेबी छेर दूर से यह सब देख रहा था. उसने वहीं से आवाज़ लगाकर लोमड़ी से कहा, ‘‘इन बच्चों को तंग मत करो!’’

लोमड़ी ने पलट कर गुस्से से कहा,‘‘तुम चुप रहो! तुम कौन होते हो, मुझे रोकने वाले!’’

छेर के बच्चे को गुस्सा आ गया. वह दौड़ता हुआ आया. लोमड़ी को एक चपत लगाता हुआ बोला,‘‘निकल जाओ यहाँ से, नहीं तो मार-मार कर भुर्त्ता बना दूँगा! बच्चों को तंग करते शर्म नहीं आती...’’

लोमड़ी दुम दबाकर रोती हुई भागी और बेबी छेर फिर अपनी जगह पर लेट कर, धूप सेंकने लगा.
उसकी मम्मी पास ही लेटी यह सब देख रही थी. वह चुपचाप उठी. बच्चे को शाबासी दी. इनाम में उसे पचास क्रोनर का नोट देती हुई बोली,‘‘बहुत अच्छा किया तुमने... ये लो बाज़ार से चॉकलेट खरीद कर खा लो!’’

इतने में छेर के पापा भी उठकर आए. उन्होंने भी उसे पचास क्रोनर चॉकलेट के लिए इनाम में दिए.

वह बाज़ार से ढेर सारी चॉकलेट खरीद कर लाया. उन तीनों ने मिलकर खूब खाई! बस कहानी ख़तम!
‘‘कहानी तो अच्छी है...’’ मैंने कहा.

सामने वाली आराम कुर्सी पर बैठा शिशिर कुछ काम कर रहा था. शायद उसका ध्यान हमारी बातों पर भी था. वह उठा और पचास क्रोनर का एक नोट लाया. धनी को उसे देता हुआ बोला,‘‘शाबाश! कहानी अच्छी है. यह इनाम लो. शाशा के साथ चॉकलेट खरीद कर खा लेना!’’

धनी ने वह नोट मेरी ओर बढ़ाया. मैने देखा-नोट किनारे से थोड़ा सा फटा है. कुछ मैला सा!
अपनी ओर से मैंने पचास क्रोनर और मिलाकर धनी की जेब में डाल दिए!

कुछ अर्से बाद, एक दिन शाश्वत स्कूल से लौटा तो दौड़ता हुआ कमरे में आया. मैं कुछ पढ़ रहा था. आते ही बोला,‘‘दादा जी, धनी ने उस दिन ग़लत कहानी सुनाई और आपने उसे इनाम दे दिया!’’

‘‘क्या ग़लत था उसमें? धनी बचाव की मुद्रा में बोला.

‘‘क्लास में आज हमारी मैडम ने बतलाया कि नॉर्वे में तो शेर होते ही नहीं... धनी झूठी कहानी सुना दी और आपने सच मान ली!’’

धनी को लगा कि जैसे वह जीती हुई बाजी हारने जा रहा है. वह देर तक कुछ सोचता हुआ बोला,‘‘अरे, जंगल में नहीं होते तो क्या हुआ? कोई फॉरेन से ला भी तो सकता है! क्या दादा जी, दिल्ली के चिड़ियाघर से नहीं ला सकते- अपने साथ हवाई जहाज में! जैसे मोना के पापा आइसलैंड से हवाई जहाज में अपने साथ, सफेद, झवरैला, लाल मुँह वाला कुत्ता ‘पोलर डॉग’ लाए थे?’’

मैं बीच-बचाव करता हूँ कि कहानी में कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है...

****

तभी एक दिन शाशा ने कहा,‘‘दादा जी, ये धनी आज-कल मन लगाकर नहीं पढ़ता. रोज़ दादी को, मम्मी को ढेर सारी कहानियाँ सुनाता है, चिड़िया की! तितली की! नदी की! बंदर की! फूल की! कहता है,‘‘जब बहुत सारी कहानियाँ हो जाएँगी तो इनाम में इत्ते-इत्ते सारे क्रोनर मिलेंगे.’’ वह दोनों हाथ फैलाता है. ‘‘फिर बाज़ार से दादा जी के लिए हम चश्मा खरीद कर लाएँगे...’’

*****

लगभग तीन सप्ताह बाद दिल्ली लौट आया. दो-तीन दिन में नया चश्मा भी बना लिया.

अर्से बाद एक दिन अपने चमड़े के हैंड बैग की भीतर वाली जेब में कुछ टटोल रहा था तो एक लिफ़ाफ़े में चिड़िया, पहाड़, मछली, पेड़, फूल के टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से खिंचे बहुत सारे रेखा-चित्र दिखे. और उनके साथ पचास-पचास क्रोनर के दो नोट भी रखे थे, जिनमें से एक का किनारा थोड़ा-सा फटा-फटा सा था-कुछ मैला सा भी!

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हिंमाशु जोशी
7/सी-2, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स,
मयूर विहार, फेज-1
दिल्ली-11009

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