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सोमवार, 1 जून 2009

दरवाज़ा अंदर खुलता है



कहानी
इस जगह से थोड़ी ही दूर पर वह घर है. उस घर में सिर्फ़ एक दरवाज़ा है. वह दरवाज़ा घर के अंदर खुलता है. घर में न कोई खिड़की है, न रोशनदान है. चारों तरफ ऊँची-ऊँची दीवारें हैं और सिर्फ़ कच्चा आँगन. आँगन में एक कुआँ है. एक अमरूद का, एक करौंदे का और एक नीम का पेड़ है.

नीम के पेड़ के चारों तरफ गोलाई में एक चबूतरा है. चबूतरे पर बीट पड़ी रहती है, जिनसे पता चलता है कि पेड़ पर पक्षी रहते हैं. घर में और कोई नहीं रहता. कोने में एक छोटी सी कोठरी है जो बंद रहती है. उसकी छोटी-सी खिड़की टूटी हुई है, जिससे झाँककर देखो तो वहाँ लकड़ी का एक पुराना संदूक, एक निवाड़ का पलंग और लोहे की दो छोटी तिपाइयाँ नज़र आती हैं. कोठरी का फर्श टूटा हुआ है. दीवार में एक बड़ा-सा आला है...

उन्होंने बताया था, “कोठरी कई बरसों से खोली नहीं गई है. यह उस कोठरी की चाबी है लेकिन इससे ताला नहीं खुलेगा. तुम यह तेल भी ले जाओ. ताला चिकनाई पाकर नरम पड़ जाएगा और चाबी घूम जाएगी. तुम्हें पहले कोठरी की सफ़ाई करनी होगी. इसके बाद तुम अपना सामान वहाँ जमा लेना. दो-चार रोज़ में कुएँ की सफ़ाई करा देंगे. यह घर तुम्हारे रहने लायक बन जाएगा. पहले हमारी बुआ वहाँ रहती थी. उसके मरने के बाद एक चौकीदार रखा था, पर वह हफ्ते-भर में ही भाग खड़ा हुआ. तुम अब भी सोच लो. तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?” उन्होंने पूछा था.

उस घर के आसपास कोई दूसरा घर नहीं है. उन्होंने यह बताया था और कहा था कि ढलान पर एक पुराना मंदिर है. उससे थोड़ी दूरी पर यह घर है. घर में मंदिर के घंटे की सुबह-शाम आवाज़ आती है. दिन में बीसियों लोग घर के सामने से गुज़रते हैं.

घर से थोड़ी दूर नदी है जो बरसात में चढ़ जाती है. तब पानी आँगन में आ जाता है. लेकिन इधर कुछ बरसों से नदी ने भी चढ़ना बंद कर दिया है. बरसात के महीनों को छोड़कर पूरे साल वह एक नाले-सी बनी रहती है. नदी पार करने के लिए पानी वाली जगह पर खूजर के दो पेड़ रख दिए गए हैं. लोग इनपर चलकर नदी पार करते हैं. नदी के पार काफ़ी दूर तक खेत हैं. उसके बाद आमने-सामने गाँव हैं.
“दिशा-मैदान के लिए तुम नदी के पास खेतों में जा सकते हो. दिन में तो घर के सामने की कच्ची सड़क चलती रहती है. रात को भी वहाँ कोई डर नहीं होना चाहिए. चोर-लुटेरा वहाँ से क्या ले जाएगा? तुम सफ़ाई करके सामान जमा लो, फिर घर से लोटा-बाल्टी और लालटेन ले जाना. तुम्हें वहाँ असुविधा नहीं होनी चाहिए”. उन्होंने एक ही साँस में सब बता दिया था.उसे असुविधा शब्द सुनकर हल्की-सी हँसी आई लेकिन उसने उस पर तुंरत काबू पा लिया. उसे कोई असुविधा अब नहीं होती. न किसी चीज़ से डर लगता है. पहले उसे अकेलेपन से ऊब होती थी. अब उसे अकेलेपन से न ऊब होती है न डर लगता है.
वह ऐसे ही अहातेनुमा घरों में रहने का आदी हो गया है. वह एक ट्यूबवेल ऑपरेटर था. किसानों को पानी देता था. वे उससे सिंचाई करते थे. कई किसानों ने उसे प्रलोभन दिया कि वह उन्हें जितना पानी देता है, उसका 10-20 फीसदी ही किताबों को दिखाए और शेष पानी का जितना पैसा बनता हो उसका आधा उनसे नक़द ले ले.
शीशा कुछ जगह खुरदरा-सा था, लेकिन बूढ़ी औरत की तस्वीर जैसे एक आश्वस्तकारी ख़ुशी के साथ उसका स्वागत कर रही थी. यह आवाज़ भीतर से उठ रही थी. और तस्वीर में उसे उसकी मौन प्रतिध्वनि महसूस होती थी. उसे लगा कि इन कोठरी ने तो जैसे पेड़, पक्षी और कुएँ से भी ज़्यादा आत्मीयता से उसका स्वागत किया हो

उसका दिल नहीं ठुकता था. वह सोचता था कि वह अकेला प्राणी है. न घर, न बाहर. न बाल, न बच्चा. न रिश्तेदार, न दोस्त. उसे जो तनख़्वाह मिलती है उससे उसका काम आसानी से चल जाता है और कुछ पैसा बचाकर वह हर महीने डाकखाने में जमा भी कर देता है. खेतों-गाँवों में घूमते उसका टाइम आसानी से कट जाता है. ख़ुद खाना बनाने, कपड़े थोने और सौदा-सुफल लाने में उसे मज़ा आता है. रोज़ाना वह अपनी किताबों में पानी का हिसाब दर्ज करता है.

शहर जाता है तो एकाध पत्रिका भी ख़रीद लाता है. पढ़कर उसे अच्छा लगता है. बचपन से उसने देवकीनंदन खत्री, वृंदावनलाल वर्मा, प्रेमचंद वगैरह के उपन्यास पढ़े हैं और पढ़ने का आनंद उठाया है. उसे कभी लालच नहीं आया. उसने किसानों की चौपालों में उनके साथ यदा-कदा हुक्का तो ज़रूर गुड़गुड़ाया, लेकिन किसी से कभी कुछ और लेने की तमन्ना नहीं रखी.

उसने किसानों पर यकीन किया क्योंकि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़कर उसकी यह समझ बनी थी कि किसान परिश्रमी भले ही नहीं, पर ईमानदार और सच्चे होते हैं. ऐसा मानकर उसने एक बार किसान पर भरोसा किया, जिसने उसे सैकड़ों रुपयों का चूना लगा दिया. वह न केवल मुफ़्त में उसके सरकारी ट्यूबवेल का पानी अपने खेतों के लिए खींचता रहा, बल्कि औरों को भी बेचता रहा. ज़रूरत से ज़्यादा चलने के कारण ट्यूबवेल की मोटर फुंक गई और असिस्टेंट इंजीनियर द्वारा अचानक की गई जाँच में वह पकड़ा गया. उस दिन उसे बहुत डर लगा. उसी दिन उसे सबसे ज़्यादा दुख हुआ.

उसके माँ-बाप बचपन में ही चल बसे थे. उसकी बड़ी बहन ने उसे पाला-पोसा था. वह भी उसके 12वीं पास करते ही चल बसी थी. उसके बाद उसने बहुत धक्के खाए. चौकीदारी और बागवानी की. एक असिस्टेंट इंजीनियर को उस पर रहम आ गया और उसने उसे नलकूप विभाग में ऑपरेटर रखवा दिया. उसकी किस्मत अच्छी थी कि उसकी नौकरी एक के बाद दूसरे साल बढ़ती चली गई, लेकिन 11 साल की सर्विस के बाद भी वह पक्का नहीं हुआ. उसके बाद कई छोटे-मोटे काम करता हुआ 40 साल की उम्र में वह धनीराम कानूनगो के संपर्क में आया. धनीराम ने यह अहाता उसे रहने के लिए दे दिया और शर्त रखी कि वह उसकी किताबें वगैरह भर दिया करेगा. इसके बदले वह उसे पैसे भी देगा. वह चाहे तो धनीराम के घर के बाहर चबूतरे की ड्योढ़ी में बैठकर यह काम करे या इस अहाते में. उसने अहाते को चुना.

धनीराम ने सही कहा था. अहाते का दरवाज़ा अंदर की तरफ खुलता था. उस पर कोई ताला नहीं लगा था. ताला कोठरी के दरवाज़े पर था और उसमें जंग लगा था. उसे खोलने में उसे काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी थी. चाबी घूमती ही नहीं थी. उसे दम लगाना पड़ा था. कुछ नहीं हुआ था. उसने कुप्पी से तेल डाला. फिर भी नरम भी न पड़ा. दोपहर का वक़्त था. लेकिन हवा बह रही थी. पेड़ हिलते थे. इक्का-दुक्का पक्षी चहकते थे, पर नज़र नहीं आते थे. वह नीम के पेड़ के पास आकर ऊपर देखने लगा. उसे बेहद खुशी हुई. वहाँ बीसियों पक्षी बैठे थे. उसने सोचा, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा, जिससे पक्षी परेशान हों. उसने सबसे पहले नीम के पेड़ के चारों ओर बने उस चबूतरे को साफ़ किया. चबूतरे का फर्श सीमेंट का बना था. वह कभी चिकना रहा होगा. अब उस पर ऋतुओं के धुंधले-से निशान थे. कहीं-कहीं बीच में घास दिखती थी. उस पर कुछ टूटे हुए पंख पड़े थे. पर सबसे ज़्यादा बीटें थीं. ज़रा-सी कोशिश से चबूतरे की रूह निकल आई. उसने सोचा, कोठरी न खुलती हो तो न खुले, वह पेड़ के नीचे इस चबूतरें पर अपना सामान रख देगा. जाड़े खत्म हो चुके हैं. रातें ठंडी ज़रूर हैं, लेकिन वह उन्हें बर्दाश्त कर सकता है.

उसने अहाते का चक्कर लगाया. जगह-जगह घास उग आई थी. अहाता बड़ा था. कुएँ की जगत की लकड़ी जर्जर हो गई थी. नीचे गहरा कुआँ था. उसकी दीवारें समय की खरोंचों से निरापद लग रही थीं. नीचे पुराना पानी शांत होकर ठहरा हुआ था. उसका मन हुआ, वह आवाज़ दे. उसने कुएँ में मुँह नीचा करके जोर से कहा ‘गिरधारीलाल!’ कुएँ ने तत्काल उसे स्वागत में जोर से कहा ‘गिरधारीलाल’. उसे बेहद ख़ुशी हुई. उसने सोचा, कुआँ सचमुच आत्मीयता से भरा है. इस नई जगह पर इसने ही मुझे पहली बार मुझे मेरे होने का अहसास कराया. फिर जोर से कहा ‘गिरधारीलाल’ आवाज़ उसकी ख़ुशी को संभाल नहीं पा रही थी. उसे लगा कि उसमें नया बल और नई स्फूर्ति आ गई है. तभी कोई कोई पक्षी चहचहाया. उसकी देखा-देखी कुछ और पक्षी चहचाहे. उसे लगा कि उसके स्वागत में जैसे उसके रिश्तेदार हुलस रहे हों. उसने सोचा, अब कोठरी का ताला खुल जाना चाहिए.




वह कोठरी के दरवाज़े पर आ गया. उसने फिर चाबी घुमानी शुरू की. शायद पक्षियों और कुएँ की प्रतिक्रिया को देखकर अब ताला भी नरम पड़ गया था. ताली घूम गई. दरवाज़ा खुल गया और बाहर छोटी-सी खिड़की से देखने पर जो दिखाई नहीं देता था, वह सब भी दिखाई देने लगा. अंदर एक पुराना चित्र लगा था, जिस पर जाले फैल गए थे. एक जगह पर एक मकड़ी जैसे अटकी-सी थी. उसने शीशा साफ़ किया तो उसके पीछे एक बूढ़ी औरत का चित्र उभर आया. उसके चेहरे पर वात्सल्य और ममता की रोशनी थी, जो इतने वर्षों में भी बुझी नहीं थी. हालांकि लकड़ी का फ़्रेम कुएँ की जगत की तरह ही जर्जर था. शीशा कुछ जगह खुरदरा-सा था, लेकिन बूढ़ी औरत की तस्वीर जैसे एक आश्वस्तकारी ख़ुशी के साथ उसका स्वागत कर रही थी. यह आवाज़ भीतर से उठ रही थी. और तस्वीर में उसे उसकी मौन प्रतिध्वनि महसूस होती थी. उसे लगा कि इन कोठरी ने तो जैसे पेड़, पक्षी और कुएँ से भी ज़्यादा आत्मीयता से उसका स्वागत किया हो.

वह कोठरी साफ़ करने में जुट गया. घंटे-डेढ़ घंटे में वह अपनी सादगी में दीप्त हो उठी. सूरज अब कोठरी के भीतर आ गया था और उसकी गर्म हवा चीज़ों के चेहरों को पोंछ रही थी. उसे लगा अब उसे धनीराम के घर से अपना सामान ले आना चाहिए. निवाड़ की चारपाई को ख़ूब झाड़-पोंछकर उसने कोठरी के बाहर धूप में रख दिया ताकि सूरज उसे उसकी तमाम गंधों से मुक्त कर अपनी निर्मल महक से सुवासित कर सके.

10-15 दिनों में ही धनीराम कानूनगो के इस अहाते को गिरधारीलाल ने चमका डाला. कई जगह क्यारियों में गेंदे और गुलाब के पौधे लगा दिए गए. कुएँ की सफ़ाई करके उसमें पोटेशियम परमेगनेट डाल दिया गया. पानी के ज़्यादा इस्तेमाल के कारण उस पुराने कुएँ का पानी ठंडेपन और ताज़गी में अपने से पहले के हर पानी से होड़ लेने लगा. दरअसल वह स्रोत फिर से जीवंत हो गया था. जैसे ही बाल्टी कुएँ में गिरती, एक मीठी आवाज़ होती, जैसे कुएँ में कोई गाने के लिए उतावला हो. फिर लहरों में बाल्टी में घुसने की होड़ लग जाती. ऊपर आती बाल्टी से छलकता पानी जैसे अपनी ख़ुशी न संभाल पाता हो. अहा! कितने वर्षों के बाद उसका कोई इस्तेमाल कर रहा है. और इस इस्तेमाल में भी पानी को बर्बाद करने का नहीं, बल्कि बचाने का आत्मीय भाव है. कुएँ ने कोठरी से लेकर चबूतरे तक और तीनों पेड़ों से लेकर बीसियों-तीसियों पक्षियों तक में नया जीवन डाल दिया था.

वह रोज़ पेक्षों की जड़ों में पानी देता. चबूतरे को साफ करता और धनीराम कानूनगो की किताबों में एंट्री करता रहता. उसके पास वक़्त कम हो गया था. अब उसे पढ़ने का टाइम नहीं मिलता. वह पौधों के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं निकाल पाता. किताबें भरते-भरते उसका मन ऊब जाता तो वह चाहता कि कुएँ से बतियाए. पक्षियों की चहचहाहट सुने. कभी वह पेड़ के ऊपर चढ़ जाता. शुरू-शुरू में पक्षी डरकर उड़ जाते थे पर धीरे-धीरे वे अभ्यस्त हो गए. वह ऊपर चढ़कर उनके घोंसलों में झाँक आता. और कभी-कभी पेड़ की डाल पर बैठकर कोई पुरानी किताब पढ़ता. वहाँ कई बार उसकी आँख लग जाती. पक्षी उस पर निगाह रखते-जैसे माँ सारे काम करते हुए, अपने बच्चों पर निगाह रखती है. जैसे ही उन्हें लगता कि गिरधारीलाल गिर जाएगा, वे जोर-जोर से चहचहाने लगते. तब वह संभल जाता और पक्षियों पर आत्मीय नज़र जालते हुए पेड़ से नीचे आता. पक्षी तब जोर-जोर से चहकते जैसे वह कह रहे हों-अभी थोड़ी देर और हमारे पास बैठो! यह सोचता कि इन पक्षियों को अपने हाथों से सहलाए. उनकी आँखों में देखते हुए अपने प्रेम और करूणा की भाषा से उनके दिल में उतर जाए.

नीचे फिर कानूनगो के बही-खाते, रजिस्टर और किताबें उसे घूरते. उसे अपने से डर लगता. वह अंदर कोठरी में बूढ़ी अम्मा के चित्र के आगे खड़ा होकर सोच में डूब जाता. उसे लगता है, उसकी माँ भी ऐसी ही रही होगी. अपने हाथ से बनाया हुआ भोजन वह पहले पक्षियों के लिए डालता और जब पक्षी उसे खा लेते तो उसे बहुत ख़ुशी मिलती. खाना खाकर वह कुएँ से बतियाता. उसका निर्मल जल उसे तृप्त कर देता. वह अपने काम में लग जाता. बीच-बीच में पौधों और फूलों के बात करता और जब पक्षी यह देखकर रूठ जाते तो उन्हें मनाता.

विवेक बाबू का विवाह हो चुका था. घर की बागडोर उनके हाथ में आ गई थी. उनका छोटा-सा व्यापार चल निकला था. अब वे पुरखों के अहाते को बेचकर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे. वे गिरधारीलाल से कई बार कह चुके थे कि बाबूजी रिटायर हो गए हैं, तुम कहीं और ठीया ढूंढ़ लो


वर्षों वह अपने बनाए उस स्वर्ग में रहता रहा. उसे न कभी अकेलापन लगा, न वह ऊबा. वह कभी बीमार भी नहीं पड़ा. बाहरी दुनिया के साथ उसका संपर्क धनीराम कानूनगो और उनके परिवार की मार्फ़त या दुकानदारों से सौदा-सुलफ खरीदने तक ही सीमित था. सुबह जब वह नदी के पास शौच को जाता तो नदी की हालत देखकर दुखी हो जाता. नदी धीरे-धीरे मरती जा रही थी, जबकि उसके अहाते के सामने की सड़क पक्की हो गई थी. नदी पर एक रपटा बन गया था. पानी की पतली-सी धारा रपटे के नीचे से बहती थी. बरसात में पानी बढ़ने पर रपटे के ऊपर से बढ़ता. जब पानी कम हो जाता तब लोग रपटे के ऊपर से नदी पार करते थे. सड़क पर आवागमन बढ़ गया था. पासवाले मंदिर से अब घंटों की आवाज़ें ज़्यादा आती थीं. बीच में कभी-कभी धनीराम कानूनगो का बेटा विवेक वहाँ आता था. अहाते की बदली हुई हालत देखकर उसे ख़ुशी होती और उसकी आँखें चमकने लगतीं. तब किसी पक्षी की बीट टप से उसकी शर्ट पर गिर जाती. गिरधारीलाल कहता,‘‘विवेक भैया, पक्षी की बीट शुभ होती है.’’ वह अपने हाथ से शर्ट पर गिरी बीट साफ़ करता और लगभग गिरने को तैयार कोई फूल विवेक को देता. यह पता नहीं चलता कि विवेक की नाराज़गी दूर हुई या नहीं.

लेकिन जैसे दूसरे दरवाज़ों, अहातों, घरों आदि का जीवन होता है, वैसा ही इस दरवाज़े का भी हुआ. एक दिन उसके बाहर कड़ी-कुंडा जड़ दिया गया. धनीराम रिटायर हो गए थे. घर पर उनका शासन खत्म हो गया था. विवेक बाबू का विवाह हो चुका था. घर की बागडोर उनके हाथ में आ गई थी. उनका छोटा-सा व्यापार चल निकला था. अब वे पुरखों के अहाते को बेचकर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे. वे गिरधारीलाल से कई बार कह चुके थे कि बाबूजी रिटायर हो गए हैं, तुम कहीं और ठीया ढूंढ़ लो. गिरधारीलाल को इस जगह से मोह हो गया था. वह यहाँ से जाना नहीं चाहता था.

जब तक धनीराम ज़िंदा रहे, गिरधारीलाल यहाँ बना रहा. उन्होंने विवेक को समझाया कि बेटे, मुफ्त में जगह की चौकीदारी हो रही है. अब तो हम गिरधारीलाल को तनख़्वाह भी नहीं देते. थोड़ी बहुत मदद कर देते हैं. पर उसने अहाते को वैसे ही चमकाकर रखा है. धनीराम के काम से मुक्त होने के कारण गिरधारीलाल का मन अब उस माहौल में और ज़्यादा लगता. वह पक्षियों के बीच खाना खाता. पौधों को दुलारता. तितलियों के पीछे भागता. हवा और पानी के साथ अपने संस्मरणों को याद करता और कुएँ से जब गिरधारीलाल की प्रतिध्वनि आती तो उसे अपने होने पर यकीन होता. उसे लगता कि ईश्वर ने उसे कितना सुख और ख़ुशी दी है.

दरवाज़े के बाहर कुंडा जड़ दिए जाने के बावजूद दरवाज़ा अभी भी अंदर ही को खुलता है. वह अंदर से ही बंद होता है जैसे पहले बंद होता था. लेकिन अब कभी भी वह बाहर से बंद किया जा सकता है और उस पर ताला ठोका जा सकता है‘‘यह सोच-सोचकर गिरधारीलाल परेशान हो जाता’’ वह सोचता, क्या इस पर्यावरण के बिना वह ज़िंदा रह सकता है? वह कुएँ में जोर से अपने को पुकारता और पाता कि कुएँ की आवाज़ में अब पहले-सी बात नहीं है. उसे लगता कि पक्षियों में भी अब रूखापन है. पौधे सूख रहे हैं और कोठरी में उसे अब डर-सा लगता है. वह उदास है कि किसी ने उसकी आत्मा को उसमें से निकाल लिया है. वह एक शव है. वह अचानक कब्रिस्तान हो गया है. वहाँ अब सन्नाटा है. पक्षी सन्नाटा गाते हैं और कुएँ से सन्नाटे की प्रतिध्वनि आती है. कोठरी में सन्नाटा है. उसे अहाते से बाहर निकाल दिया गया है विवेक कह रहा है,‘‘बाबूजी ने दया करके इसे यहाँ रख लिया और इसने यहाँ पर कब्ज़ा जमा लिया है.’’

वह नदी की ओर बढ़ रहा है. उसके पीछे अचानक पक्षियों का झुंड बढ़ा चला आ रहा है, जैसे वह ख़ुद की अपने कंधे पर अपनी अर्थी लिए जा रहा हो और पक्षी शोक में डूबे उसकी शवयात्रा में शामिल हो गए हों. कुएँ में वर्षों से उसकी सतह पर अटकी प्रतिध्वनियाँ रुक-रुककर पुकार रही हैं,‘‘गिरधारीला! गिरधारीलाल...’’

साभार - बीबीसी हिंदी

मधुसूदन आनंद
103-ए, गौतम नगर
नई दिल्ली-110049

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