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शनिवार, 13 जून 2009

हमारा क्या है



हम तो जी मुर्गेमुर्गियाँ हैं
हमें ऐसे मार दो या वैसे मार दो
हलाल कर दो या झटके से मार दो
चाहो तो बर्ड फ्लू हो जाने के डर से मार दो
मार दो जी, जीभरकर मार दो

मार दो जी, हज़ारों और लाखों की संख्या में मार दो
परेशान मत होना जी, यह मजबूरी है हमारी
कि मरने से पहले हम तड़पती ज़रूर हैं.
चीख़ती-चिल्लाती ज़रूर हैं
चेताती हैं ज़रूर कि लोगो, भेड़-बकरियो और मनुष्यो तुम भी
अच्छी तरह सुन लो, समझ लो, जान लो
कि आज हमें मारा जा रहा है तो कल तुम्हारी बारी भी आ सकती है
अकेले की नहीं लाखों के साथ आ सकती है

हम जानती हैं हमारे मारे जाने से क्राँतियाँ नहीं होतीं
हम जानती हैं कि हमारे मारे जाने को मरना तक नहीं माना जाता
हम जानती हैं
हम आदमियों के लिए सागसब्जियाँ हैं, फलफ्रूट हैं
हमारे मरने से सिर्फ़
आदमी का खाना कुछ और स्वादिष्ट हो जाता है.

हमें मालूम है मुर्गे-मुर्गी होने का मतलब ही है
अपने आप नहीं मरना, मारा जाना
हमें मालूम है हम मुर्गेमुर्गी होने का अर्थ नहीं बदल सकते
फिर भी हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
जो कभी किसी कविता, किसी कहानी में प्रकट हो जाते हैं
हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
इसलिए कभी किसी को इस बहाने यह याद आ जाता है
कि ऐसा मनुष्यों के साथ भी होता है, फिर-फिर होता है

हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं इसलिए हम सुबह कुकड़ू कूँ ज़रूर करते हैं
हम अपनी नियति को जानकर भी दाने खाना नहीं छोड़ते हैं
कुछ भी, कैसे भी करो
मुर्गेमुर्गियों को आलू बैंगन नहीं समझा जा सकता

साभार - बीबीसी हिंदी
विष्णु नागर

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