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मंगलवार, 16 जून 2009

पढ़ाई चालीसा


दिलीप भाटिया
बेटा पढ़। आगे पढ़। बेटी तू भी पढ़। सुंदर भविष्य गढ़।।
समय है मूल्यवान। अच्छे कामों पर दे ध्यान।।
बना टाइम टेबिल। पढ़ लिखकर बन काबिल।।
प्रतिदिन स्कूल जा। घर से होमवर्क करके ला।।
जिस कक्षा में है उतने घंटे पढ़। हर विषय को ध्यान देकर पढ़।
गणित की एक प्रश्नावली प्रतिदिन कर। अँग्रेजी के दस नए शब्द प्रतिदिन याद कर।।
रट मत। ध्यान से समझ।।
लिखकर नोट्‍स बना। परीक्षा के दिन दोहरा।।
रात को जल्दी सो जा। पढ़ने को सुबह जल्दी उठ जा।।
मॉडल पेपर घर पर कर। रिहर्सल प्रेक्टिस अवश्य कर।।
जितना पूछा है उतना ही लिख। अच्छा स्पष्ट सुलेख लिख।।
शब्दों की सीमा याद रख। समय सीमा का ध्यान रख।।
अपनी गलती चेक कर। केलकुलेशन स्पेलिंग ठीक कर।।
ध्यान देकर प्रश्न पढ़। सही सही उत्तर लिख।।
आधा खाली की सोच भूल। आधा भरा सफलता का मूल।।
चरित्र निर्मल रख। स्वास्थ्‍य ठीक रख।।
बड़ों का कहना मान। बन एक अच्छा इंसान।।
अच्‍छे नंबरों से होगा पास। सकारात्मक सोच होगी अगर साथ।।
मन लगाकर कर पढ़ाई। दिलीप अंकल खिलाएँगे मिठाई।

(गुरुजी महाराज कृष्ण जैन को सादर श्रद्धांजलि)

साभार : शुभ तारिका

शनिवार, 13 जून 2009

हमारा क्या है



हम तो जी मुर्गेमुर्गियाँ हैं
हमें ऐसे मार दो या वैसे मार दो
हलाल कर दो या झटके से मार दो
चाहो तो बर्ड फ्लू हो जाने के डर से मार दो
मार दो जी, जीभरकर मार दो

मार दो जी, हज़ारों और लाखों की संख्या में मार दो
परेशान मत होना जी, यह मजबूरी है हमारी
कि मरने से पहले हम तड़पती ज़रूर हैं.
चीख़ती-चिल्लाती ज़रूर हैं
चेताती हैं ज़रूर कि लोगो, भेड़-बकरियो और मनुष्यो तुम भी
अच्छी तरह सुन लो, समझ लो, जान लो
कि आज हमें मारा जा रहा है तो कल तुम्हारी बारी भी आ सकती है
अकेले की नहीं लाखों के साथ आ सकती है

हम जानती हैं हमारे मारे जाने से क्राँतियाँ नहीं होतीं
हम जानती हैं कि हमारे मारे जाने को मरना तक नहीं माना जाता
हम जानती हैं
हम आदमियों के लिए सागसब्जियाँ हैं, फलफ्रूट हैं
हमारे मरने से सिर्फ़
आदमी का खाना कुछ और स्वादिष्ट हो जाता है.

हमें मालूम है मुर्गे-मुर्गी होने का मतलब ही है
अपने आप नहीं मरना, मारा जाना
हमें मालूम है हम मुर्गेमुर्गी होने का अर्थ नहीं बदल सकते
फिर भी हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
जो कभी किसी कविता, किसी कहानी में प्रकट हो जाते हैं
हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
इसलिए कभी किसी को इस बहाने यह याद आ जाता है
कि ऐसा मनुष्यों के साथ भी होता है, फिर-फिर होता है

हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं इसलिए हम सुबह कुकड़ू कूँ ज़रूर करते हैं
हम अपनी नियति को जानकर भी दाने खाना नहीं छोड़ते हैं
कुछ भी, कैसे भी करो
मुर्गेमुर्गियों को आलू बैंगन नहीं समझा जा सकता

साभार - बीबीसी हिंदी
विष्णु नागर

सोमवार, 25 मई 2009

वक़्त



यह कैसा वक़्त है
कि किसी को कड़ी बात कहो
तो वह बुरा नहीं मानता.

जैसे घृणा और प्यार के जो नियम हैं
उन्हें कोई नहीं जानता

ख़ूब खिले हुए फूल को देख कर
अचानक ख़ुश हो जाना,
बड़े स्नेही सुह्रदय की हार पर
मन भर लाना,
झुँझलाना,
अभिव्यक्ति के इन सीधे सादे रूपों को भी
सब भूल गए,
कोई नहीं पहचानता

यह कैसी लाचारी है
कि हमने अपनी सहजता ही
एकदम बिसारी है!

इसके बिना जीवन कुछ इतना कठिन है
कि फ़र्क़ जल्दी समझ में नहीं आता
यह दुर्दिन है या सुदिन है.

जो भी हो संघर्षों की बात तो ठीक है
बढ़ने वालों के लिए
यही तो एक लीक है.

फिर भी दुख-सुख से यह कैसी निस्संगिता
कि किसी को कड़ी बात कहो
तो भी वह बुरा नहीं मानता.

कीर्ति चौधरी
साभार - बीबीसी हिंदी

मुझे फिर से लुभाया



मुझे फिर से लुभाया

खुले हुए आसमान के छोटे से टुकड़े ने,
मुझे फिर से लुभाया.
अरे! मेरे इस कातर भूले हुए मन को
मोहने,
कोई और नहीं आया
उसी खुले आसमान के टुकड़े ने मुझे
फिर से लुभाया.

दुख मेरा तब से कितना ही बड़ा हो
वह वज्र सा कठोर,
मेरी राह में अड़ा हो
पर उसको बिसराने का,
सुखी हो जाने का,
साधन तो वैसा ही
छोटा सहज है.

वही चिड़ियों का गाना
कजरारे मेघों का
नभ से ले धरती तक धूम मचाना
पौधों का अकस्मात उग आना
सूरज का पूरब में चढ़ना औ
पच्छिम में ढल जाना
जो प्रतिक्षण सुलभ,
मुझे उसी ने लुभाया

मेरे कातर भूले हुए मन के हित
कोई और नहीं आया

दुख मेरा भले ही कठिन हो
पर सुख भी तो उतना ही सहज है

मुझे कम नहीं दिया है
देने वाले ने
कृतज्ञ हूँ
मुझे उसके विधान पर अचरज है.

कीर्ति चौधरी
साभार - बीबीसी हिंदी

बरसते हैं मेघ झर-झर



बरसते हैं मेघ झर-झर

भीगती है धरा
उड़ती गंध
चाहता मन
छोड़ दूँ निर्बंध
तन को, यहीं भीगे
भीग जाए
देह का हर रंध्र

रंध्रों में समाती स्निग्ध रस की धार
प्राणों में अहर्निश जल रही
ज्वाला बुझाए
भीग जाए
भीगता रह जाए बस उत्ताप!

बरसते हैं मेघ झर-झर
अलक माथे पर
बिछलती बूँद मेरे
मैं नयन को मूँद
बाहों में अमिय रस धार घेरे
आह! हिमशीतल सुहानी शांति
बिखरी है चतुर्दिक
एक जो अभिशप्त
वह उत्तप्त अंतर
दहे ही जाता निरंतर
बरसते हैं मेघ झर-झर

कीर्ति चौधरी
साभार - बीबीसी हिंदी

एक बाल कविता



दो देशों के बीच मचा जब घोर महासंग्राम,
दिन पर दिन बीते, आ गए लाखों सैनिक काम!
कभी किसी का पलड़ा भारी कभी कोई बलशाली,
होते होते एक देश का हुआ ख़ज़ाना ख़ाली!
उसने राजदूत बुलवा कर भेजा एक प्रस्ताव,
क्षमा करें, संधि करलें पर चलें न कोई दाँव!

उत्तर आया इतने हाथी, इतने घोड़े दे दो,
इतनी मुद्राएँ, वस्त्रों के इतने जोड़े दे दो!
एक शर्त पर और है अपनी दस सेवक भिजवादो,
ह्रष्टपुष्ट , बलशाली हों, बस इतना काम करादो!




राजा ने संदेश यह सुन कर दूतों को बुलवाया,
दस बलशाली सेवक लाने जगह-जगह दौड़ाया!

कुछ दिन बीते, सैनिक लौटे, आए मुँह लटकाए,
राजा देख उन्हें चिल्लाया, यह क्या हाय, हाय!
अरे मूर्खो, इतना सा भी काम नहीं कर पाए,
पूरे देश से दस बलशाली लोग नहीं ला पाए!
सैनिक बोले इतना ही कह सकते हैं हे, राजन्,
हम बेबस हैं चाहे ले लें आप हमारा जीवन!

गली-गली और नगर-नगर की ख़ाक है छानी हमने,
नींद को भूले, भूख को त्यागा, पिया न पानी हमने!
भूख-प्यास की मारी जनता, शक्ति कहाँ से पाए,
पूरे देश में दस बलशाली लोग नहीं मिल पाए!
ऐसे लोग ह्रष्टपुष्ट हों, खोट नहीं हो जिनमें,
गाँव-नगर में नहीं, वे हैं तो केवल राजमहल में!

सलमा ज़ैदी
साभार - बीबीसी हिंदी
 

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