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शुक्रवार, 26 जून 2009

विल्मा रूडोल्फ : दृढ़निश्चय से विजय


घटना है वर्ष 1960 की। स्थान था योरप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें 25 अगस्त से 11 सितंबर तक होने वाले ओलिंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलिंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी। वह इतनी तेज दौड़ी कि 1960 के ओलिंपिक मुकाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया की सबसे तेज धाविका बन गई।

रोम ओलिंपिक में 83 देशों के 5346 खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए लोग इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रूडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पीलिया हो गया था। इस कारण उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रूडोल्फ नाम की यह लड़की ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी, लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में बदलते देखने के लिए लोग दीवाने थे।

डॉक्टरों के मना करने के बावजूद विल्मा रूडोल्फ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई। उसने अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही। उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव सी बात पूरी कर दिखलाई। एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती।

शौर्य गाथा : लान्सनायक कर्मसिंह


बार बार शिकस्त
शिव कुमार गोयल

13 अक्टूबर, 1948 को पाकिस्तानी हमलावरों ने कबाइलियों के रूप में, कश्मीर के तिथवाल क्षेत्र पर अचानक भीषण हमला बोल दिया।

तिथवाल क्षेत्र की अंतिम चौकी पर सिख रेजिमेंट के लान्सनायक कर्मसिंह अपने बहादुर जवानों के साथ सजग प्रहरी के रूप में तैयार थे। भारतीय जवानों ने हमलावरों को फुर्ती के साथ ऐसी मार दी‍ कि वे सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए। सिख जवानों ने 'सत् श्री अकाल' के गगनभेदी उद्‍घोषों के साथ दुश्मन का काफी दूर तक पीछा करके उसे तिथवाल क्षेत्र से दूर धकेल दिया।

पाक हमलावरों ने एक के बाद एक अनेक हमले तिथवाल की अंतिम चौकी पर किए किंतु लान्सनायक कर्मसिंह उनके बहादुर सिख जवानों के शौर्य के सम्मुख पराजित हो गए तो उन्होंने भारतीय जवानों पर बमवर्षा भी की। किंतु भयंकर बम भी भारतीय रणबाँकुरों की अंतिम रक्षा-पंक्ति को हटा न सके। भारतीय जवान फौलाद की तरह चौकी के आगे डटे रहे।

दुश्मन ने चौथी बार तिथवाल पर हमला किया तो वीर लान्सनायक कर्मसिंह ने अपने बहादुर सिख जवानों को प्रोत्साहित करते हुए कहा - 'गुरु गोविंद सिंह के बहादुरों! आज दुश्मन ने क्रूर कबाइलियों से, महाराजा रणजीत सिंह के पवित्र कश्मीर पर हमला करवाकर हमारे स्वाभिमान को खुली चुनौती दी है। हमें पाकिस्तानी दरिंदों के हमले का वीरतापूर्वक जवाब देकर अपना पानी दिखाना है। दुश्मन इस बार बच न पाए। मोर्चे सँभालकर तैयार हो जाओ।'

सिख जवानों ने एक साथ 'सत् श्री अकाल' का गगनभेदी उद्‍घोष किया व दुश्मन पर गोलियाँ बरसाते हुए बिल्कुल निकट पहुँच गए। आमने सामने पहुँचने पर हथगोले का प्रयोग प्रारंभ हो गया। वीर लान्सनायक कर्मसिंह ने हथगोलों से अनेक पाक लुटेरों को धराशायी कर दिया। भारतीय रणबाँकुरों का शौर्य देखकर पाक लुटेरे इस बार भी पीछे हट गए, किंतु वीर कर्मसिंह दुश्मन के हथगोले से घायल हो गए।

पाक हमलावरों ने पीछे से और भी अधिक कुमुक इकट्‍ठी करके पाँचवी, छठी और सातवीं बार तिथवाल पर आक्रमण किया। घायल लान्सनायक वीर कर्मसिंह ने हर बार अपने मुट्‍ठी भर जवानों के साथ डटकर लोहा लिया।

लड़ाई का मैदान हर बार लुटेरों की लाशों से पट गया। 'सत् श्री अकाल' व 'भारत माता की जय' के उद्‍घोषों से आकाश गूँजता रहा। किंतु आठवीं बार दुश्मन ने और भी अधिक तेजी के साथ‍ तिथवाल पर हमला किया। वीर लान्सनायक कर्मसिंह घायल अवस्था में ही अपने मोर्चे पर डटे हुए दुश्मन पर गोलियाँ दागकर अपने बहादुर जवानों को प्रोत्साहन देते रहे। उन्होंने देखते ही देखते अनेक दुश्मनों को गोलियों से भून डाला।

साभार : देवपुत्र

रवींद्र सेतू यानी हावड़ा ब्रिज!


हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाला हावड़ा ब्रिज जब बनकर तैयार हुआ था तो इसका नाम था न्यू हावड़ा ब्रिज। 14 जून 1965 को गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर इसका नाम रवींद्र सेतू कर दिया गया पर प्रचलित नाम फिर भी हावड़ा ब्रिज ही रहा।

हुगली नदी पर बना यह पुल हावड़ा और कोलकाता को आपस में जोड़ता है। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। 1933 में इसकी जगह बड़ा ब्रिज बनाने का निर्णय हुआ। 1937 से नया पुल बनना शुरू हुआ। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह जरूर कहा गया था ‍

पहेलियाँ ही पहेलियाँ


बृजमोहन गोस्वामी

1. तुम न बुलाओ मैं आ जाऊँगी,
न भाड़ा न किराया दूँगी,
घर के हर कमरे में रहूँगी,
पकड़ न मुझको तुम पाओगे,
मेरे बिन तुम न रह पाओगे,
बताओ मैं कौन हूँ?

2. गर्मी में तुम मुझको खाते,
मुझको पीना हरदम चाहते,
मुझसे प्यार बहुत करते हो,
पर भाप बनूँ तो डरते भी हो।

3. मुझमें भार सदा ही रहता,
जगह घेरना मुझको आता,
हर वस्तु से गहरा रिश्ता,
हर जगह मैं पाया जाता

4. ऊपर से नीचे बहता हूँ,
हर बर्तन को अपनाता हूँ,
देखो मुझको गिरा न देना
वरना कठिन हो जाएगा भरना।

5. लोहा खींचू ऐसी ताकत है,
पर रबड़ मुझे हराता है,
खोई सूई मैं पा लेता हूँ,
मेरा खेल निराला है।

उत्तर : 1. हवा 2. पानी 3. गैस 4.द्रव्य 5. चुंबक 6. काँच

मंगलवार, 16 जून 2009

नारियल पानी का नहीं कोई सानी



यदि आपसे पूछा जाए कि नारियल किस-किस काम आता है तो आपका पहला जवाब होगा पूजा में श्रीफल के रूप में। हिन्दी फिल्मों में तो नारियल पानी हीरो-हीरोइन के बीच रोमांस दर्शाने का भी एक माध्यम है। हीरो-हीरोइन अक्सर सिर भिड़ाकर एक ही नारियल से पानी पीते नजर आते हैं। पर इस नारियल की कहानी सिर्फ इतनी-सी नहीं है। यह एक अत्यंत गुणकारी फल है, जो कई शारीरिक समस्याओं से निजात दिलाता है।

1. अगर आप लंबे सफर पर हैं और जोर से प्यास लग रही हो तो थोड़ा सा रुकिए और नारियल पानी पीजिए। फिर देखिए आप कैसे एनर्जी से भर जाते हैं और आपकी प्यास भी बुझ जाती है।

2. यह प्यास बुझाने के साथ-साथ सेहत का भी ख्याल रखता है। नारियल का पानी एक कुदरती पेय है। इसकी तासीर ठंडी होती है, जिससे शरीर भी ठंडा रहता है।

3. मानव रक्त में इलेक्ट्रोलाइट का जो स्तर पाया जाता है, वही स्तर इसमें भी मौजूद होता है। अतः यह इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस बनाए रखता है।

4. यह पौष्टिक तत्वों जैसे पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम और विटामिन ए, बी व सी से भरपूर है जो शरीर के विकास में अत्यंत उपयोगी हैं।

5. नारियल पानी सायटोकिनिन्स नामक तत्व का प्रमुख स्रोत है, जो कैंसर से लड़ने में बहुत उपयोगी है।

6. यह मूत्राशय व किडनी से संबंधित रोगों के लिए एक कारगर औषधि है।

7. नारियल पानी एक स्पोर्ट्‌स ड्रिंक का भी कार्य करता है और इस बात को संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन ने भी प्रमाणित किया है। आजकल लोग भी इसके गुणों को जानने लगे हैं तथा इसका लाभ भी लेने लगे हैं।

पढ़ाई चालीसा


दिलीप भाटिया
बेटा पढ़। आगे पढ़। बेटी तू भी पढ़। सुंदर भविष्य गढ़।।
समय है मूल्यवान। अच्छे कामों पर दे ध्यान।।
बना टाइम टेबिल। पढ़ लिखकर बन काबिल।।
प्रतिदिन स्कूल जा। घर से होमवर्क करके ला।।
जिस कक्षा में है उतने घंटे पढ़। हर विषय को ध्यान देकर पढ़।
गणित की एक प्रश्नावली प्रतिदिन कर। अँग्रेजी के दस नए शब्द प्रतिदिन याद कर।।
रट मत। ध्यान से समझ।।
लिखकर नोट्‍स बना। परीक्षा के दिन दोहरा।।
रात को जल्दी सो जा। पढ़ने को सुबह जल्दी उठ जा।।
मॉडल पेपर घर पर कर। रिहर्सल प्रेक्टिस अवश्य कर।।
जितना पूछा है उतना ही लिख। अच्छा स्पष्ट सुलेख लिख।।
शब्दों की सीमा याद रख। समय सीमा का ध्यान रख।।
अपनी गलती चेक कर। केलकुलेशन स्पेलिंग ठीक कर।।
ध्यान देकर प्रश्न पढ़। सही सही उत्तर लिख।।
आधा खाली की सोच भूल। आधा भरा सफलता का मूल।।
चरित्र निर्मल रख। स्वास्थ्‍य ठीक रख।।
बड़ों का कहना मान। बन एक अच्छा इंसान।।
अच्‍छे नंबरों से होगा पास। सकारात्मक सोच होगी अगर साथ।।
मन लगाकर कर पढ़ाई। दिलीप अंकल खिलाएँगे मिठाई।

(गुरुजी महाराज कृष्ण जैन को सादर श्रद्धांजलि)

साभार : शुभ तारिका

रक्तदान की महत्ता समझनी होगी



भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त जरूरी
आनंद सौरभ

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के तहत भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत है लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। यानी करीब 25 लाख यूनिट खून के अभाव में हर साल सैंकड़ों मरीज दम तोड़ देते हैं। खून के एक यूनिट से तीन लोगों की जान बचाई जा सकती है।

विश्व रक्तदान दिवस समाज में रक्तदान को लेकर व्याप्त भ्रांति को दूर करने का और रक्तदान को प्रोत्साहित करने का काम करता है। भारतीय रेडक्रास के राष्ट्रीय मुख्यालय के ब्लड बैंक की निदेशक डॉ. वनश्री सिंह के अनुसार देश में रक्तदान को लेकर भ्रांतियाँ कम हुई हैं पर अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।

उन्होंने बताया कि भारत में केवल 59 फीसद रक्तदान स्वेच्छिक होता है। जबकि राजधानी दिल्ली में तो स्वैच्छिक रक्तदान केवल 32 फीसद है। दिल्ली में 53 ब्लड बैंक हैं पर फिर भी एक लाख यूनिट खून की कमी है। डॉ. सिंह ने कहा कि इस तथ्य से कम ही लोग परिचित हैं कि खून के एक यूनिट से तीन जीवन बचाए जा सकते हैं।

रेडक्रास में रक्त देने आए दिल्ली के सरस्वती विहार के पंकज शर्मा पिछले कई सालों से स्वेच्छा से यह काम करते आ रहे है। उनका कहना है कि लोगों को रक्तदान की महत्ता समझनी होगी। यह महादान है।

सोनीपत हरियाणा के गबरुद्दीन 163 बार खून दे चुके हैं। भाषा को उन्होंने फोन पर बताया कि उनके जीवन का ध्येय रक्त देकर लोगों की सहायता करना है।

डॉ.वनश्री कहती हैं कि रेडक्रास में 85 फीसद रक्तदान स्वैच्छिक होता है और इसे 95 फीसद तक करने की कार्ययोजना है। सरकार और विभिन्न संगठनों को ब्लड कैंप और मोबाइल कैंप लगा कर लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करना चाहिए। लोगों को बताना होगा कि रक्तदान का कोई भी दुष्प्रभाव नहीं बल्कि यह आपको लोगों की जान बचाने वाला सुपरहीरो बनाता है।
सौजन्य से - भाषा

अम्मा से वह आख़िरी मुलाक़ात



अम्मा से वह आख़िरी मुलाक़ात

सुपरिचित कथाकार मंज़ूर एहतेशाम इन दिनों अपने नए उपन्यास की रचना में लगे हुए हैं. प्रस्तुत है इस उपन्यास ‘बिगाड़’ का एक अंश....
बात बिगड़नी तो शायद काफ़ी पहले, जब उसने जायदाद में अपने हक़ का यूँ ही सरसरी तौर पर ज़िक्र किया था, शुरू हो गई थी लेकिन उसकी संजीदगी का शुरू में खुद उसे अंदाज़ा नहीं हुआ था.

पिछले कुछ साल उसके लिए ऐसे बीते थे जिनमें अनेक रहस्य-रूपी मामलों पर से पर्दा उठा था और कई ऐसी बातें जिन्हें वह अपने बचपन से जोड़कर लाख समझने की कोशिश के बाद भी नहीं समझ पाता था, साफ़ होती गई थीं. यह कि वह यतीम था और जिन्हें इतने लंबे अर्से तक अपना पिता समझता रहा था, अम्मा के दूसरे शौहर और खुद उसके सौतेले बाप थे, और उसी हिसाब से बाक़ी पाँचों छोटी बहनें, उसकी सौतेली बहनें. और यह भी कि सौतेले बाप की जायदाद में उसका कोई हिस्सा नहीं बनता था. फिर एक के बाद दूसरी, कई ऐसी बातें जिनको जानना न सिर्फ़ अम्मा के प्रति उसकी सोच को गड़बड़ाता था, बल्कि अभी तक जो-जो हो चुका था उसे अजीब तरह से हास्यस्पद बनाता था. अगर यही था तो सात साल पहले जब उसकी गृहस्थी भोपाल में जम चुकी थी, अम्मा ने उसे और मरियम को बंबई वापस आने पर क्यों मजबूर किया?! जवाब एक ही हो सकता था-अपनी ख़ुदगर्ज़ी की वजह से! वहाँ बंबई में अब्बा की जायदाद के उलझे मामलों को सुलझाने के लिए कोई भरौसेमंद भाग¬-दौड़ करने वाला नहीं था. अब्बा की पहली शादियों से, एक नहीं, दर्जन-भर औलादें थीं, लेकिन सब निकम्मी भी, और अब्बा-अम्मा, ख़ास तौर पर अम्मा की दुश्मन भी.


आज की दुनिया में अव्वल तो आदर्श-नामी तोता पालता कौन है, या पालता है तो उसकी परवरिश गिद्ध की तरह करता है, दूसरे लोगों को नोचने-खसूटने के वास्ते इस्तेमाल करने को. ज़िंदा चीज़ें अपनी उम्र गुज़ार सकने के लिए आबो-हवा और फ़िज़ा की मुहताज होती हैं, वह तोते हों, गिद्ध या इंसान!


दरअसल, उन सात खातों के दौरान ही ज़्यादातर राज़ों पर से पर्दे उठे थे. उस बीच, खुद उसकी कोशिशों से बंबई में ज़्यादातर जायदाद के उलझे मामले भी सुलझ चुके थे, और उसके अपने लिए कुछ माँगने पर अम्मा के इनकार के बाद, जो कोशिश उसने खुद पाँवों पर खड़े होने की की थी, न सिर्फ़ यह कि बुरी तरह नाकाम हो गई थी, बल्कि मामला जिस तरह खुलकर सामने आया था उससे अम्मा को यक़ीन हो गया था कि वह अब्बा की जायदाद में अमल-दख़ल करके, ग़ैर-क़ानूनी तौर पर बंधा-पैसा कमाना चाहता है! उसने ग़ैर-ज़रूरी सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं समझी थी और एक बार फिर, मरियम और बिटिया के साथ उसी शहर भोपाल का रूख़ किया था जो बीते समय में एक बार उनकी पनाहगाह रह चुका था.

आज की दुनिया में अव्वल तो आदर्श-नामी तोता पालता कौन है, या पालता है तो उसकी परवरिश गिद्ध की तरह करता है, दूसरे लोगों को नोचने-खसूटने के वास्ते इस्तेमाल करने को. ज़िंदा चीज़ें अपनी उम्र गुज़ार सकने के लिए आबो-हवा और फ़िज़ा की मुहताज होती हैं, वह तोते हों, गिद्ध या इंसान! कभी कोई बेईमानी करते हुए नीयत थोड़ी करता है कि मैं अब फ़लां-फ़लां काम बेईमानी का करने जाता हूँ. बेईमानी भी हो जाती है, ईमानदारी की तरह और जो हो जाए उसके पक्ष में दलीलें पेश करना, कौन-सा मुश्किल काम है! बेईमानी भी हो जाती है, ईमानदारी की तरह, और जो हो जाए उसके पक्ष में दलीलें पेश करना, कौन-सा मुश्किल काम है! लगता है, आज ऐसा हो गया है, लेकिन यक़ीनन दुनिया-बनने के साथ ही ऐसा रहा होगा.

सवाल-जवाब का जोखिम भी किसी के साथ इस तकल्लुफ़ को बरतते ही उठाया जा सकता है कि कहीं हम आपसी लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन तो नहीं कर रहे! तो भी, सारे दुनियादारी के तक़ाजे जे़हन में रखने की कोशिश के बावजूद ऐसा हो जाता है (जिसके करने की बेपनाह ख़्वाहिश दिल में होने के बावजूद) जो हम करना नहीं चाहते!


भोपाल लौटने के कुछ वक़्त बाद, अपना काम शुरू कर सकने के सहारे खोजता, जब वह एक बार फिर वापस बंबई गया था, तो ऐसा ही कुछ अम्मा और उसके बीच हो गया था, जिसके नतीजे उसे अम्मा का वह रौद्र-रूप देखने को मिला था.

-अरे जा, जा! अम्मा ने गुस्से की लौ पकड़ती आवाज़ में उसे ललकारा था. –तेरी हैसियत मेरे लिए कपड़े की उस चिन्दी से ज़्यादा नहीं जो महीने पर औरत बांधती है? तुझ जैसे कितने कीड़े मेरे जिस्म से गंदगी बनके बह गए, बेग़ैरत! तू बात किस से कर रहा है!

पल भर को उसे चक्कर आ गया था. आँखों के सामने अंधेरा और कानों में झाईयाँ बजने लगी थीं. सारी कड़वाहट और बिगाड़ के बावजूद उसने कल्पना नहीं की थी कि अम्मा उससे कभी इस मुहावरें में बात कर सकती थीं या कभी उसके कान उनकी आवाज़ में यह सुन सकते थे. तब तक हो रही बातचीत, जिसमें खुद उसके तेवर हमले के थे, या हमलावराना ढंग से जिसकी शुरुआत हुई थी, एकदम ग़ायब- उसका दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली हो गया था. उस पल अगर उसने क़रीबी दीवार का सहारा न लिया होता तो शायद ग़श खा कर गिर जाता. और फिर, बिल्कुल अनजाने और अनचाहे, उसकी आँखों से आंसुओं की मोटी धारें बह निकली थीं. यह, कि खुद उसके अंदर आंख से बह निकल सकने वाले माद्दे की इतनी मिक़दार मौजूद थी, उसे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था, क्योंकि खुद अपनी याद में वह शायद ही कभी रोया था.


जाने कितना वक्फ़ा रहा होगा, अम्मा का आख़री जुमला सुनने के बाद उसके होशों-हवास वापस लौटने में, लेकिन जब ऐसा हुआ था तो उसने पाया था उस दौरान एक पल को भी अम्मा चुप नहीं हुई थीं, और लगातार उसी कैफ़ियत में बोले चली जा रही थीं

ज़िंदगी के उलझावे हों या मौत के सदमे, उस पर इस तरह असरअंदाज़ नहीं हो पाए थे कि अपने अंदरूनी समंदर का उसे एहसास हो पाता. और पता नहीं वह रोना ही था या उसे अलग से कोई नाम दिया जाना चाहिए, क्योंकि आंख़ें ज़ारो-क़तार बहती रही थीं लेकिन हलक़ से कोई भी आवाज़ नहीं निकली थीं. बल्कि शायद पूरे वक़्त उसके चेहरे पर मुस्कुराहट सी खेलती रहीं थी! अच्छा हुआ उस वक़्त वहाँ दूसरा कोई नहीं था, वरना क्या तमाशा बनता उसका! एक छह-फीटा, लहीम-शहीम आदमी, सर-मूंछ-सब सफ़ेद, जितना-जितना मुस्कुरा रहा था, आंखों से उतने ही ज़्यादा आंसू बह रहे थे! ‘स्माइल मसल्स’ और ‘हेयर डक्टस’ का आपस में ऐसा मसख़रा शॉर्ट-सर्किट शायद ही कभी देखने में आता हो.

जाने कितना वक्फ़ा रहा होगा, अम्मा का आख़री जुमला सुनने के बाद उसके होशों-हवास वापस लौटने में, लेकिन जब ऐसा हुआ था तो उसने पाया था उस दौरान एक पल को भी अम्मा चुप नहीं हुई थीं, और लगातार उसी कैफ़ियत में बोले चली जा रही थीं. वह पल उसकी शिकस्त का पल था-‘कोई सुलह नहीं! उनकी नाराज़गी और गुस्सा खुद उसके कानों तक सिर्फ़ आवाज़ की ऊँच-नीच की तरह पहुँच रहा था, जिसे शब्दों में समझ पाना या जिसका जुम्लों में मतलब निकाल पाना मुम्किन नहीं था. अपनी आस्तीन की कोर से आँखें खुश्क करते हुए उसने नज़र भर कर उन्हें देखा थाः आँखों में कौंधती दीवानगी, नफ़रत में फड़कती नाक और खुद पर क़ाबू रखने के लिए फ़र्श पर बिछे क़ालीन पर होले-होले उठते क़दम. उन्होंने हरे फूल-बूटे की पैटर्न का स्लीपिंग-गाउन पहन रखा था और नाक में कीमती हीरे की लोंग दमक रही थी. उस अधूरे हवास की कैफ़ियत में भी जो लफ़्ज़ सिमट कर उसकी ज़बान पर आया, वह ‘वाह! ही था! एक बार फिर से वह अम्मा के रौब का क़ायल होने पर मजबूर हो गया था.

वाह! कुछ पल ठहर कर फिर वही उसने ऊँची आवाज़ में दोहराया था, अम्मा को एकटक देखते.

वाह-वाह क्या कर रहा है! वह और भड़क उठी थीं-कोई मुशायरा हो रहा है यहाँ?!

मुशायरा तो नहीं, वह बोला तो लगा आवाज़ मनों बोझ में दबी, कमज़ोर और कहीं दूर से आ रही थी-वाह-वाह क्या सिर्फ़ शायरी सुनकर ही की जाती है! आपको मान गए, उसकी दाद दें रहे हैं! हम आपके सामने लगते कहाँ हैं, उसने इस तरह कहा था जैसे उनसे नहीं, खुद अपने-आप से बात कर रहा हो. हर मायने में, हैं आप हमारी अम्मा ही! वार और ऐसा तीखा! बक़ौल शायर-‘तेग़आज़मा का हाथ ही काम से जाता रहा!’ मान गए?

जा रस्साले! उन्होंने हिक़ारत से कहा था-शेर सही याद रख सकने तक की तो तमीज़ नहीं, कि ‘तेग़आज़मा का हाथ ही’ और ‘हाथ ही तेग़आज़मा’ के बीच फ़र्क़ कर सकते! शायरों-अदीबों की दोस्ती का दम भरते हैं! हम से सवाल-जवाब करके तफ़सील और सफ़ाई चाहते हैं, केंचेवे स्साले! वह कौन-सी बदबख़्त घड़ी थी, मेरे मालिक! जो मैंने ऐसे जान के दुश्मनों को जना! और जन दिया था तो गला घौंट कर ख़त्म क्यों नहीं कर दिया! वह कौन-सी ख़ता हुई मुझसे मेरे मालिक! जिसकी सज़ा तू इन मरदूदों को मेरे सिर पे मुसल्लत करके दे रहा है.

घड़ी और पल, मेरी पैदाइश के, खूब याद होंगे आपको. उसने इस अंदाज़ में कहा था जैसे अम्मा को जता देना-चाहता हो कि उसे सिर्फ़ एक लड़ाई में मात हुई थी. जंग अभी बाकी थी. जब बेटे ने पैदा होकर आँखें खोली और बाप ने दुनिया को अलविदा कहा! जब मुल्क को फ़िरंगी और आपको कंगाल शौहर से...!

उसने जुम्ला अधूरी छोड़ दिया था. उसे पूरा करने की ज़रूरत भी नहीं थी. वह उसके दिमाग को खूब अच्छी तरह समझती थीं.

हाँ! उन्होंने गुस्से में पूरी ताक़त से चीख़ते हुए कहा था-डाकू! पैदा होते ही बाप को खा गया!

और किसी आँधी में पत्ते-सी काँपती, कुछ घातक कर गुज़रने से बचने के लिए, वह कमरे से चली गई थीं. ठीक किया वरना उतनी देर में वह शॉक और सदमे से इतना तो उबर ही चुका था कि मासूमियत से पूछता-खा कहाँ गया, आपके लिए आसानी कर दी!

आज़ादी दिला दी! वह मरते नहीं तो एक कंगाल की मुहब्बत आपके लिए कितने दिन को क़ाफी होती! कितना साथ निभा पातीं आप उसका या जब तक वह ज़िंदा था, कितना साथ रहीं आप उसके!

यह थी उसकी अम्मा से वह आख़िरी मुलाक़ात जिसे यादगार कहा जा सकता था.

चश्मा - हिमांशु जोशी




मैंने अभी घर की देहरी पर पाँव रखा ही था कि शाश्वत ने धनी की तरफ, शिकायत से देखते हुए कहा, ‘कह दूँ, दादाजी से...’ रहस्यमय ढंग से वह धनी की ओर देखता रहा, देर तक!

धनी अचकचाया. शायद इस अप्रत्याशित आक्रमण के लिए तैयार नहीं था. बोला कुछ भी नहीं पर उसके मन का दबा हुआ आक्रोश रह-रहकर आँखों की राह झाँक रहा था.

बर्फ़ की फ़ुहारों से भीगा मफ़लर, दस्ताने दरवाज़े के पास रखे स्टैंड पर रखता हूँ. फिर चमड़े का लंबा कोट भी जतन से! जिसमें से पिघलती बर्फ़ का पानी बूँद-बूँद निथर रहा था.

पॉलिथिन के बैग में लिपटी पुस्तकें मेज़ पर रख देता हूँ और फिर दीवार पर टँगी घड़ी पर मेरी निगाहें अटक आती हैं.

‘‘किसी का फ़ोन तो नहीं आया?’’

‘‘आया था. धनी ने उठाया और ‘दादा जी अभी नहीं हैं,’’ कहते हुए खट् से रख दिया था.’’ शाश्वत के स्वर में कहीं शिकायत का सा भाव था.

‘‘और किसी का नहीं? मैंने जिज्ञासा से फिर पूछा.

‘‘आए तो थे-तीन-चार. पर धनी ने पूरी बात सुने बिना ही काट दिए थे...’’ इस बार श्रीमती जी का स्वर था. वह पानी का गिलास मेज़ पर रख कर फिर तेज़ कदमों से रसोईघर की तरफ चली गईं. जहाँ चूल्हे पर किसी वस्तु के जलने के कारण दुर्गंध सी फैल रही थी.

‘‘अरे, यह तो पूछ लेते कि था किसका?’ मेरे स्वर में तनिक तल्खी थी. ‘कई लोगों से कई तरह के काम होते हैं! व्यर्थ में थोड़े ही कोई यों ही फ़ोन करता है?’’

‘ये बच्चे सुनें, तब न! धनी तो फ़ोन की घंटी बजते ही, आँखें मूंद कर भागने लगता है, रिसीवर उठाने के लिए...’’ श्रीमती जी किचन से ही, आवाज़ लगाती हुई कहती हैं.

मैं कुर्सी पर धम्म से बैठ जाता हूँ. तौलिए से हाथ-मुँह पोंछता हुआ कहता हूँ, ‘‘कल विकल्प कह रहा था तीन-चार बार फ़ोन किए, पर बात हो न पाई. निहाल भाई घर आने का कार्यक्रम बना रहे थे, पर संपर्क ही न हो सका...!’’

दिन भर की भाग-दौड़ से थका, यों ही पाँव लम्बे कर लेता हूँ. आँखे मूँदे कुर्सी पर ही लेट सा जाता हूँ.

तभी अहसास होता है, जैसे मेरे हाथों में, किसी के, नन्हें से कोमल गरम हाथों का स्पर्श सा हुआ.
सहसा मेरी आँखें खुलती हैं. शाश्वत कुर्सी के हत्थे के सहारे खड़ा है!

‘कौन शाशा?’ मैं चौंक कर कहता हूँ.

शाश्वत अभी भी चुप था. कुछ क्षण सन्नाटा रहा.

तभी शाश्वत ने मौन भंग करते हुए कहा, ‘दादा जी, यह धनी बहुत शैतानी करता है. आपकी लिखने वाली मेज पर, शॉल ओढ़कर, आपकी तरह बैठता है. आपकी तरह, पेन पकड़ कर, आपकी तरह कुछ लिखने-सा लगता है. मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही, ग़ुस्से से देखता हुआ कहता है, ‘‘देखते नहीं, अब मैं हिमांशु जोशी हो गया हूँ-दादाजी हूँ...! शोरगुल कतई नहीं!’’

‘‘इस पर दादी और मम्मी हँसती हैं तो वह और अकड़ कर कहता है,‘‘मैं दादा जी से भी अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ...’’

‘‘अरे, तुम्हें तो अभी कलम पकड़ना भी नहीं आता’’ कहता हूँ तो वह मारने के लिए दौड़ता है...!’’
मैं खिड़की के शीशे के उस पार, चिड़ियों को बरामदे की रैलिंग पर बैठ कर बतियाती हुई देखता हूँ. आश्चर्य होता है, ये गौरय्या भारत के हर भागों में ही नहीं, इधर नॉर्वे जैसे बर्फीले इलाकों में भी होती हैं.
मेरा ध्यान बच्चों की बातों में कम और इधर-उधर की बातों में अधिक भटक रहा है. कल सेमिनार में भाग लेने, विश्वविद्यालय जाना है. ‘पत्रिका’ के लिए संपादकीय लिख कर, फैक्स से भारत भेजना है. भौमिक परसों डेनमार्क चला जाएगा, उससे मिलना है.

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पता नहीं क्यों, इस बार नॉर्वे आने पर बहुत कुछ बदला-बदला सा लगता है. स्वयं अपने पर भी कुछ कम बदलाव नहीं! पहले शरीर पर समय का असर कम प्रतीत होता था, पर अब कुछ अधिक लगने लगा है!

ओस्लो हवाई अड्डे की नव निर्मित मुख्य इमारत से बाहर कार पार्किंग तक की कुछ दूरी खुले में पार करनी होती है. चारों ओर बर्फ़ की सफेद चादर सी बिछी थी. बर्फ़ भी ताजी नहीं, जमकर ठोस शीशे की तरह कठोर! बर्फ़ पर चलने का अभ्यास न होने के कारण, अभी चार-छह कदम ही आगे बढ़ पाया कि पता नहीं कैसे पाँव लड़खड़ाए, संतुलन बिगड़ा, और मैं बर्फ़ पर चारों खाने चित्त!

बड़ी मुश्किल से उठाया और कार तक पहुँचाया. गाड़ी में बैठकर, साँस में साँस आई. चोट तो नहीं लगी थी, पर लगता था, ठंड के कारण घुटनों का दर्द कुछ बढ़ सा गया है.

अभी कार मुख्य मार्ग तक पहुँच भी न पाई थी कि मेरा ध्यान चश्मे की ओर गया. उसके बाईं तरफ का शीशा नदारत था. संभवतः वहीं कहीं गिर गया हो, जहाँ मेरे पाँव रपटा था. मैंने चश्मे को वैसे ही पहन लिया, कम से कम कुछ तो दिखेगा!

‘‘कल बाज़ार से बनवा लेंगे...’’ शशिर ने कहा,‘‘हाथों हाथ मिल जाएगा...’’

दूसरे दिन ‘स्टूटिंग’ होते हुए बाज़ार पहुँचे. चश्मे की एक भव्य दुकान पर. डॉक्टर ने अनेक बार, अनेक तरह के यंत्रों से आँखों को उलट-पटल कर देखा. सारे टेस्ट करने के पश्चात, अंत में जोड़-घटाने के बाद कहा,‘‘करीब छह हज़ार क्रोनर लगेंगे...’’

‘‘छह हज़ार क्रोनर! यानी 36 हज़ार रुपए से भी अधिक!

‘‘कुछ और दुकानें भी हैं! वहाँ भी पूछ लेते हैं...’’ शिशिर ने सुझाव दिया.

हम बाहर आते हैं. ‘सीटी सेंटर’ की मार्केट टटोलते हैं. वहाँ भी स्थिति लगभग वैसी ही है!

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शाम को हम बैठे थे. दूरदर्शन पर कोई कार्यक्रम था. शिशिर बार-बार मेरी ओर देख रहा था. उसे लगा कि शायद मुझे देखने में कठिनाई हो रही है.

‘‘बाबू जी, कल शाम को बोलर जाएंगे. वहाँ मेरे एक टर्किश दोस्त की दुकान है. पैसे की बात न सोचिए. यहाँ ऐसा ही चलता है. रुपयों के हिसाब से जोड़-घटाना करेंगे तो सब मुश्किल हो जाएगा...’’

‘‘अरे भई, इत्ती सी बात के लिए क्यों परेशान हो रहे हो? कुछ ही दिनों के लिए यहाँ आया हूँ. भारत पहुँच कर बनवा लूँगा. एक चश्मे पर इतनी राशि खर्च करना मुझे समझदारी नहीं लगती. बिना चश्मे के भी मेरा काम आसानी से चल जाता है. पढ़ने-लिखने के समय, मैं यों भी कभी-कभी चश्मा उतार लेता हूँ. हाँ, बाहर चलते समय कुछ असुविधा अवश्य होती है-कभी, पर ऐसी कोई समस्या नहीं...!’’

****

शाम को मैं अपने कमरे में बैठा था. इतने में धनी आया और चुपचाप सामने वाली कुर्सी में बैठ गया.
तभी मुझे कुछ याद आया,‘धनु, शाशा बतला रहा था कि तुमने कहा कि मैं दादा जी से भी अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ...!’’

वह इस प्रश्न पर शर्माया नहीं, बल्कि आत्मविश्वास से मेरी ओर देखता रहा. स्वीकृति में उसने मात्र सिर हिला दिया.

‘‘यहाँ छह साल के कम उम्र के बच्चों को तो लिखना-पढ़ना भी नहीं सिखाते. अभी तुम ने पाँच भी पूरे नहीं किए, फिर कैसे लिखते हो...?’’

‘‘मैं बोल कर कहानी सुना देता हूँ...’’

‘‘किस की कहानी सुनाते हो?’’

‘‘मछली की. चिड़िया की. नदी की. छेर की...’’

क्षण भर का मौन तोड़ते हुए, जिज्ञासा से कहता हूँ,‘‘अच्छा शेर की सुना दो.’’

‘‘छेर की...’’इतना कह कर वह चुप हो जाता है!

‘‘अच्छा, सुनिए!’’ वह आगे कहता है.

‘‘एक छेर का बच्चा था! बेबी छेर! एक उसकी मम्मी थी. एक उसके पापा थे. तीनों एक बड़े पत्थर पर बैठे धूप सेंक रहे थे. चारों तरफ बर्फ़ थी. सामने घना जंगल था. कुछ भेड़ें घास चर रही थीं.
तभी एक शैतान लोमड़ी आई. भेड़ों को डॉटने-डराने लगीं. भेड़ें डर के मारे इधर-उधर भागने लगीं.
बेबी छेर दूर से यह सब देख रहा था. उसने वहीं से आवाज़ लगाकर लोमड़ी से कहा, ‘‘इन बच्चों को तंग मत करो!’’

लोमड़ी ने पलट कर गुस्से से कहा,‘‘तुम चुप रहो! तुम कौन होते हो, मुझे रोकने वाले!’’

छेर के बच्चे को गुस्सा आ गया. वह दौड़ता हुआ आया. लोमड़ी को एक चपत लगाता हुआ बोला,‘‘निकल जाओ यहाँ से, नहीं तो मार-मार कर भुर्त्ता बना दूँगा! बच्चों को तंग करते शर्म नहीं आती...’’

लोमड़ी दुम दबाकर रोती हुई भागी और बेबी छेर फिर अपनी जगह पर लेट कर, धूप सेंकने लगा.
उसकी मम्मी पास ही लेटी यह सब देख रही थी. वह चुपचाप उठी. बच्चे को शाबासी दी. इनाम में उसे पचास क्रोनर का नोट देती हुई बोली,‘‘बहुत अच्छा किया तुमने... ये लो बाज़ार से चॉकलेट खरीद कर खा लो!’’

इतने में छेर के पापा भी उठकर आए. उन्होंने भी उसे पचास क्रोनर चॉकलेट के लिए इनाम में दिए.

वह बाज़ार से ढेर सारी चॉकलेट खरीद कर लाया. उन तीनों ने मिलकर खूब खाई! बस कहानी ख़तम!
‘‘कहानी तो अच्छी है...’’ मैंने कहा.

सामने वाली आराम कुर्सी पर बैठा शिशिर कुछ काम कर रहा था. शायद उसका ध्यान हमारी बातों पर भी था. वह उठा और पचास क्रोनर का एक नोट लाया. धनी को उसे देता हुआ बोला,‘‘शाबाश! कहानी अच्छी है. यह इनाम लो. शाशा के साथ चॉकलेट खरीद कर खा लेना!’’

धनी ने वह नोट मेरी ओर बढ़ाया. मैने देखा-नोट किनारे से थोड़ा सा फटा है. कुछ मैला सा!
अपनी ओर से मैंने पचास क्रोनर और मिलाकर धनी की जेब में डाल दिए!

कुछ अर्से बाद, एक दिन शाश्वत स्कूल से लौटा तो दौड़ता हुआ कमरे में आया. मैं कुछ पढ़ रहा था. आते ही बोला,‘‘दादा जी, धनी ने उस दिन ग़लत कहानी सुनाई और आपने उसे इनाम दे दिया!’’

‘‘क्या ग़लत था उसमें? धनी बचाव की मुद्रा में बोला.

‘‘क्लास में आज हमारी मैडम ने बतलाया कि नॉर्वे में तो शेर होते ही नहीं... धनी झूठी कहानी सुना दी और आपने सच मान ली!’’

धनी को लगा कि जैसे वह जीती हुई बाजी हारने जा रहा है. वह देर तक कुछ सोचता हुआ बोला,‘‘अरे, जंगल में नहीं होते तो क्या हुआ? कोई फॉरेन से ला भी तो सकता है! क्या दादा जी, दिल्ली के चिड़ियाघर से नहीं ला सकते- अपने साथ हवाई जहाज में! जैसे मोना के पापा आइसलैंड से हवाई जहाज में अपने साथ, सफेद, झवरैला, लाल मुँह वाला कुत्ता ‘पोलर डॉग’ लाए थे?’’

मैं बीच-बचाव करता हूँ कि कहानी में कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है...

****

तभी एक दिन शाशा ने कहा,‘‘दादा जी, ये धनी आज-कल मन लगाकर नहीं पढ़ता. रोज़ दादी को, मम्मी को ढेर सारी कहानियाँ सुनाता है, चिड़िया की! तितली की! नदी की! बंदर की! फूल की! कहता है,‘‘जब बहुत सारी कहानियाँ हो जाएँगी तो इनाम में इत्ते-इत्ते सारे क्रोनर मिलेंगे.’’ वह दोनों हाथ फैलाता है. ‘‘फिर बाज़ार से दादा जी के लिए हम चश्मा खरीद कर लाएँगे...’’

*****

लगभग तीन सप्ताह बाद दिल्ली लौट आया. दो-तीन दिन में नया चश्मा भी बना लिया.

अर्से बाद एक दिन अपने चमड़े के हैंड बैग की भीतर वाली जेब में कुछ टटोल रहा था तो एक लिफ़ाफ़े में चिड़िया, पहाड़, मछली, पेड़, फूल के टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से खिंचे बहुत सारे रेखा-चित्र दिखे. और उनके साथ पचास-पचास क्रोनर के दो नोट भी रखे थे, जिनमें से एक का किनारा थोड़ा-सा फटा-फटा सा था-कुछ मैला सा भी!

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हिंमाशु जोशी
7/सी-2, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स,
मयूर विहार, फेज-1
दिल्ली-11009

सोमवार, 15 जून 2009

'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' फ्रांस ने दी?



अमेरिकी स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूरे होने पर 1876 में फ्रांस की तरफ से स्मारक के तौर पर अमेरिका को स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी भेंट किया गया था। यह स्टेच्यू दोनों देशों की मित्रता का प्रतीक है। 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' इसका प्रचलित नाम हो चुका है जबकि इस स्टेच्यू को जिस तौर पर फ्रांस ने भेंट किया था वह है - 'लिबर्टी इनलाइटिंग द वर्ल्ड'।
यह स्टेच्यू अमेरिका के न्यूयॉर्क हार्बर के लिबर्टी द्वीप पर स्थापित किया गया है। ताम्र पट्‍टिका से बनी यह मूर्ति 46 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति की छोटी प्रतिकृति पेरिस में स्थापित है। इस मूर्ति में एक स्त्री को ढीला लबादा ओढ़े हुए दिखाया गया। मूर्ति के बाएँ हाथ में एक पट्‍टिका है और इस पट्‍टिका पर अमेरिकी स्वतंत्रता की तिथि 4 जुलाई 1776 अंकित है। दायाँ हाथ ऊपर की तरफ है और इसमें एक मशाल है। रात के समय इस मशाल को भीतर से प्रकाशमान किया जाता है। रात में यह स्टेच्यू न सिर्फ आकर्षण का केंद्र बन जाता है बल्कि जलयानों और वायुयानों के लिए स्थानीय संकेतक का काम भी करता है।

आर्यभट्‍ट कौन थे?



भारत के प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्‍ट रखा गया था। यह नाम हमारे देश के एक प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और गणितज्ञ के नाम पर रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।

आर्यभट्‍ट ने पाई का काफी सही मान 3.1416 निकाला। उन्होंने त्रिकोणमिति में व्यूत्क्रम साइन फंक्शन के विषय में बताया। उन्होंने यह भी दिखाया कि खगोलीय पिंडों का आभासी घूर्णन पृथ्‍वी के अक्षीय पूर्णन के कारण होता है।
आर्यभट्‍ट का जन्म सन् 476 में भारत के कुसुमपुरा (पाटलिपुत्र) नामक स्थान में हुआ था। आर्यभट्‍ट प्राचीन भारत के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे। उनके कार्य आज भी विद्वानों को प्रेरणा देते हैं। वह उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया।


उन्होंने 'आर्यभटिया' नामक गणित की पुस्तक को कविता के रूप में लिखा। यह उस समय की बहुचर्चित पुस्तक है। इस पुस्तक का अधिकतम कार्य खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति से संबंध रखता है। इस पुस्तक में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं।

आर्यभट्‍ट ने पाई का काफी सही मान 3.1416 निकाला। उन्होंने त्रिकोणमिति में व्यूत्क्रम साइन फंक्शन के विषय में बताया। उन्होंने यह भी दिखाया कि खगोलीय पिंडों का आभासी घूर्णन पृथ्‍वी के अक्षीय घूर्णन के कारण होता है।

आर्यभट्‍ट ने गणित और खगोलशास्त्र में और भी बहुत से कार्य किए। ये महाराजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के माने हुए विद्वानों में से एक थे। इस महान पुरुष की मृत्यु ईसवी सन् 500 में हुई।

शनिवार, 13 जून 2009

हमारा क्या है



हम तो जी मुर्गेमुर्गियाँ हैं
हमें ऐसे मार दो या वैसे मार दो
हलाल कर दो या झटके से मार दो
चाहो तो बर्ड फ्लू हो जाने के डर से मार दो
मार दो जी, जीभरकर मार दो

मार दो जी, हज़ारों और लाखों की संख्या में मार दो
परेशान मत होना जी, यह मजबूरी है हमारी
कि मरने से पहले हम तड़पती ज़रूर हैं.
चीख़ती-चिल्लाती ज़रूर हैं
चेताती हैं ज़रूर कि लोगो, भेड़-बकरियो और मनुष्यो तुम भी
अच्छी तरह सुन लो, समझ लो, जान लो
कि आज हमें मारा जा रहा है तो कल तुम्हारी बारी भी आ सकती है
अकेले की नहीं लाखों के साथ आ सकती है

हम जानती हैं हमारे मारे जाने से क्राँतियाँ नहीं होतीं
हम जानती हैं कि हमारे मारे जाने को मरना तक नहीं माना जाता
हम जानती हैं
हम आदमियों के लिए सागसब्जियाँ हैं, फलफ्रूट हैं
हमारे मरने से सिर्फ़
आदमी का खाना कुछ और स्वादिष्ट हो जाता है.

हमें मालूम है मुर्गे-मुर्गी होने का मतलब ही है
अपने आप नहीं मरना, मारा जाना
हमें मालूम है हम मुर्गेमुर्गी होने का अर्थ नहीं बदल सकते
फिर भी हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
जो कभी किसी कविता, किसी कहानी में प्रकट हो जाते हैं
हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
इसलिए कभी किसी को इस बहाने यह याद आ जाता है
कि ऐसा मनुष्यों के साथ भी होता है, फिर-फिर होता है

हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं इसलिए हम सुबह कुकड़ू कूँ ज़रूर करते हैं
हम अपनी नियति को जानकर भी दाने खाना नहीं छोड़ते हैं
कुछ भी, कैसे भी करो
मुर्गेमुर्गियों को आलू बैंगन नहीं समझा जा सकता

साभार - बीबीसी हिंदी
विष्णु नागर

बुधवार, 10 जून 2009

मन्नो का ख़त



कहानी
उस दिन शिवालिक की पहाड़ियों के आँचल में पहुँचते-पहुँचते साँझ हो गई. मुझे अगले दिन पता चला कि मैं थोड़ा और चल लेता तो मुझे नहर के डाक बंगले में शरण मिल सकती थी. पर तब तक सूरज बिल्कुल डूब गया था और पहाड़ियाँ धुंध के कारण मटमैली दिखाई देने लगी थी.

मैं चिंतित होकर आगे बढ़ रहा था कि अब रात घिरने लगी है आश्रय मिलेगा भी तो कहाँ? तभी एक बूढ़ा एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा थामे गाँव के बाहर जाता दिखाई पड़ा. मैं चुपचाप खड़ा, तमसाकार होती सृष्टि को देखता रहा. बूढ़ा मेरे नज़दीक आया तो ठहरकर मुझे देखने लगा. उसने अपनी मिचमिचाती आँखे झपझपाकर पूछा, ‘‘कौन है भाई?’’

‘‘अजनबी हूँ बाबा.’’

‘‘वो तो समझ गया. कौन जात हो? अपनी जाति तो मैंने बता दी. पर कहाँ का रहने वाला हूँ, यह प्रश्न मैं टाल गया.’’

मैंने पूछा, ‘‘बाबा यहाँ रात को कहीं ठहरने का ठौर मिल सकता है?’’

ठहरने की जगह तो यहाँ कहाँ धरी है पर बेटा एक बात पूछे हूँ,‘‘इस उमर में बैरागी बने क्यों घूम रहे हो? जो उमर खाने, कमाने, घर बसाने की है उसमें भले घर के बालक क्या ऐसे घूमते हैं?’’ फिर ज़रा रुक कर उसने संदेह व्यक्त किया,‘‘लगे है घर से भागे हो. कहीं महतारी तो दूसरी नहीं है?’’

मुझे उस बूढ़े की ममता से एक विचित्र से स्नेह की अनुभूति हुई. मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहना बेमानी लगा. मैं ऐसे एक बूढ़े को जिसकी बरौनियाँ तक सफेद हो चली थीं, क्या समझा पाता कि घूमना-फिरना या यायावरी भी एक काम है.

वह बोला,‘‘मेरे कोठड़े में पड़ रहना और तो अब कहाँ टक्कर मारते फिरोगे.’’


ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था



मैं अभी आया कहकर बूढ़ा लाठी ठकठकाता आगे बढ़ गया. 15-20 मिनट बाद जब वह हाथ में खाली लोटा लटकाए लौट रहा था तो उसकी लाठी की ठकठक और बढ़ गई थी.

मैं भी उसके संग-संग चल पड़ा. उसने मुझे गाँव के किनारे पर लाकर एक ध्वस्त चबूतरे के नज़दीक ले जाकर खड़ा कर दिया. इसके बाद वह अपने घर गया और बेतरह धुआँ देती एक ढिबरी लेकर लौट आया. उस जीर्ण चबूतरे पर चढ़कर मैंने लक्ष्य किया कि उसके कच्चे कोठड़े में बस दीवारें ही थीं. छत शायद बैठ गई थी. मैंने भीतर जाकर देखा वहाँ एक चारपाई पड़ी थी. ढिबरी एक आले में रखकर वह बोला, ‘‘ यहाँ गरमी लगे तो खाट बाहर चबूतरे से निकाल लेना.’’

मैंने कहा,‘‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं यहीं पड़ रहूँगा.’’ यह कहकर मैंने अपना सफ़री थैला चारपाई के सिरहाने टिका दिया. बूढ़ा चला गया तो मैं चारपाई की पाटी पर टिककर कुछ सोचने लगा. तभी वह एक फ़टी दरी और तकिया लेकर आया. मुझे उसके चलने के ढंग से लगा कि बूढ़े को रात के समय कुछ ठीक से सूझता नहीं है.

जब वह चला गया तो मैंने थैले से अपनी लूँगी निकालकर पहन ली और पाजामे को तहाकर तकिए के नीचे रख दिया. तीसरे पहर एक कस्बे से गुजरते हुए जो चना और गुड़ खरीदे थे अभी पोटली निकालने की सोच ही रहा कि वह बूढ़ा हाथ में पानी भरा लोटा लिए आता दिखाई पड़ा. इस बार वह अकेला नहीं था. ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था.

उन दोनों को देखकर मैं चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से पानी का लोटा लेने लगा. तभी मैंने देखा लड़की अपने दोनों हाथों से एक थाली पकड़े हुए थी. लड़की ने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाला और आँखे झुका ली. उसके हाथों से थाली लेते हुए मुझे संकोच की अनुभूति हुई. पर थाली उसके हाथ से लेनी ही थी सो मैंने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर ले ली और चारपाई के बीचों बीच टिका दी.



रेखांकन - लाल रत्नाकर

उन दोनों के जाने के बाद मैंने उस घिसी हुई पर ढंग से मांजने के कारण चमचमाती थाली में चार रोटियाँ, भाजी और दो हरी मिर्चे रखी देखी. निश्चय ही मुझे खाने की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी. मैं दबादब चारों रोटियाँ पाँचेक मिनट में ही चट कर गया. वह जब तक दो रोटियाँ और लेकर आई तब मैं पानी का पूरा लोटा पीकर तृप्ति की डकार ले चुका था. थाली मैंने चारपाई के नीचे टिका दी थी.

उसने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखे केंद्रित करके पूछा,‘‘बस्स! इतना सा खाते हो?"

"हाँ और क्या? आदमी तो इतना ही खा सकता है."

उसने हल्के से मुस्कराकर कहा,‘‘चार रोटियों से से जादे खाने वाले क्या डंगर होते हैं.’’

मैंने जीभ निकालकर दाँतों से काटी और बोला, "नहीं नहीं. मेरा वह मतलब नहीं था."

उसने झुककर चारपाई के नीचे से खाली लौटे, जूठी थाली निकाली और खाली लोटे को उठाते हुए बोली,‘‘पानी मैं अभी ला रही हूँ.’’

लेकिन पानी का लोटा लड़की लेकर नहीं आई बल्कि बूढ़ा ही लाया. मैंने उसे बैठने को कहा तो वह चारपाई पर टिकते हुए बोला, "तुम्हें सोने की देर हो रही होगी."

नहीं-नहीं आप बैठिए. मैं इतनी जल्दी कहाँ सोता हूँ.

जब वह बैठ गया तो अपने बारे में बतलाने लगा. उसके पास कुल जमा तीन बीघा जोत थी जिसे वह बटाई पर उठा देता था. उसका एक मात्र पुत्र, दूसरी पत्नी का भी देहांत हो जाने पर वैरागी होकर पता नहीं कहाँ चला गया था. उसकी बेटी ही अब बूढे का एक मात्र सहारा थी. बूढा अपने गाँव तथा आसपास के छोटे-छोटे नंगलों और पुरवों में कथा-वार्ता करके कुछ पा जाता था. कुछ बटाइदार से और बाक़ी यजमानी से जो कुछ भी उपलब्ध होता था उसी से दादा-पोती की गुजर हो रही थी. मगर अब उस बूढ़े की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पोती के विवाह को लेकर थी.




मैं खिन्नमना उसकी चिंताएँ सुनता रहा और अब उसकी बात भी ठीक से समझ में आ गई जो उसने मुझसे मिलते ही कही थी ‘‘लगे है घर से भागे हो’’ मेरे यों भटकने में उसे कहीं घर छोड़कर भाग जाने वाले अपने बेटे की ही झलक मिली होगी.

अपनी राम कहानी कहकर जब बूढ़ा चला गया तो मैंने अपने थैले से डायरी और कलम निकालकर तकिए पर रख ली. मैं रात को जहाँ भी सोता था सोने से पहले डायरी में एक-दो पृष्ठ अवश्य लिखता था. पर मैं तुरंत कुछ लिख नहीं पाया. मुझे उस जर्जर बूढ़े की डाँवाडोल काया और उसकी जवान होती पोती का ख़्याल आ गया. मैं सोचने लगा मानों अगर साल-छह महीने में बूढे की आँखे बंद हो गई तो उस खिलते हुए यौवन की दशा क्या होगी? कौन देखेगा पितृहीन परिवारहीन उस आश्रयहीन को.

धीरे-धीरे सन्नाटा बढ़ता चला गया. दूर कहीं से एक साथ कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं. पेड़ों पर बसेरा लेने वाले पक्षी भी बीच-बीच में पंख फडफड़ा उठते थे. वह रात की निस्तब्धता में डूबी चुप्पी विचित्र मायावी लोक की सृष्टि कर रही थी.

मैं लगभग गाँव से बाहर एक छतविहीन कोठड़े में बैठा सोच रहा था कि आख़िर मैने ख़ुद यायावरों जीवन क्यों चुना? क्या रात बिरात ऐसी ही बीहड़ परिस्थितियों में भटकने के लिए?

ढिबरी का धुआँ मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने उसकी परवाह न करके अपने डायरी खोली और ढिबरी की भुतही रोशनी में लिखने का कर्त्तव्य पूरा करने लगा. अभी मैंने कुछेक पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि वह युवती आती दिखाई पड़ी. वह एक तरह से बदन चुराते हुए मेरे निकट आ रही थी. हालाँकि वहाँ आसपास इस निविर बेला में कोई नहीं था मगर फिर भी...

मेरे नज़दीक आकर उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा,‘‘किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.’’

कुछ समय के लिए तो मैं अवाक् बैठा रहा. वह चारपाई के कुछ और निकट आकर मेरी खुली डायरी की ओर संकेत करते हुए बोली बोली, ‘‘क्या लिख रहे हो?’’

मैंने यों ही बात बताने की गरज़ से कहा यही इधर-उधर की बातें. जैसे मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ का छोटा-मोटा ब्यौरा.

‘अच्छा’ कहकर वह कुछ क्षण चकित भाव से डायरी देखती रही और बोली, ‘‘क्या इसमें यहाँ की बातें भी हैं, इस कोठड़े और चंडी देवी के मंडप की भी?’’

‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं लिखूँगा. पर यहाँ चंडी मंडप कहाँ है? उसे तो मैंने अभी देखा ही नहीं है.’’

‘‘सुबह देख लेना. बाबा जी कल सतनारायण की कथा करने माजरे जाएँगे-तभी देख आना.’’ एक क्षण ठहरकर उसने एकाएक पूछा,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे?’’


वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’



मैं उसके इस औचक प्रश्न के आशय का कोई अनुमान नहीं लगा पाया. मुझे उलझन में पड़ा देखकर वह थोड़े से मुस्कराई और बोली,‘‘कोई ऐसी वैसी बात नहीं है. अब तुम सो जाओ सवेरे बताऊँगी.’’

उसके चले जाने के बाद ही मेरी चेतना में उसके वह वाक्य,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे.’’ न जाने कितनी देर गूँजता रहा. न फिर मुझे जल्दी नींद ही आई और न मैं डायरी में ही कुछ लिख पाया. ढिबरी बुझाकर मैं उस चिंतन में चारपाई पर पड़े करवटें बदलता रहा.

उस लड़की का दादा तो सुबह जल्दी ही जाग कर के किसी गाँव में कथा कहने चला गया. मैं सुबह उठकर खेतों की ओर निकल गया. लौटते में प्राइमरी मदरसा गाँव के उत्तर खंडरनुमा चंडी देवी का मंडप भी देख आया.

मैंने लौटकर अपनी डायरी खोली और पिछले दिन का विवरण लिखने लगा. कोई दसेक मिनट बीते होंगे कि वह आई और मुझे लिखते देखकर वापस जाने लगी. मैंने उसे बुलाकर कहा,‘‘क्या एक प्याला चाय मिल सकती है?’’

‘‘हाँ चाय तो मैं बना दूंगी पर प्याले घर में नहीं हैं. गिलास-कटोरी में पी लेंगे.’’? क्यों नहीं पी लूँगा. तुम लाकर तो देखो.’’

उसके चेहरे पर स्नेहशीलता भाव उभर आया. जाते-जाते बोली,‘‘दो मिनट में चाय बनाकर लाती हूँ.’’

मैं सिर झुकाकर अपनी बातें और डायरी देखने में जुट गया. वास्तव में वह अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी से वह चाय बनाकर ले आई और गिलास से कटोरी में चाय रखने लगी.

मैंने उसके हाथ से कटोरी लेकर फूक भरते हुए चाय की घूट भरी ही थी कि वह बोल उठी आप शहरी चीनी की चाय पीते होंगे पर घर में तो गुड़ ही था. पता नहीं कैसी बनी होगी. कही काढ़ा तो नहीं बन गई.’’

‘‘अरे नहीं, बहुत ---मीठी और बढ़िया बनी है.’’

‘‘झुट्ठी तारीफ़ क्यूँ करो हो! भला हम गाँव-घसले चाय बनाना क्या जानें. यों तो बब्बा जी भरे जाड़ों में सुबह-साँझ लोटा भर के चाय पीवे हैं. उन्हीं के लिए पूस-माघ के चिल्ला जाड़े में बनानी पड़े है.’’

‘‘कुछ भी कहो तुमने चाय बढ़िया बनाई है.’’ कहकर मैने कटोरी झुककर फर्श पर टिका दी और फिर मैं लग गया.

उसने इधर-उधर की टोह सी लेते हुए थोड़ी देर बाद कहा,‘‘हाँ, एक ख़त लिख दो.’’

‘‘ख़त? पर किसको? एक क्षण रुककर मैंने पूछा,‘‘क्या तुम लिखना नहीं जानती?’’

वह लज्जाकर बोली पर मुझसे लिखना कहाँ आता है. लिखने की कोशिश कई दिन की पर लिखा नहीं बस.

‘‘तब तो लिख दूँगा.’’ मैंने अपने बैग से एक कोड़ा कागज निकालकर कहा,‘‘बोलो किसे क्या लिखना है.’’

वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’

उनके एक छोटे से वाक्य से मैं हिल उठा और और उलझन में पड़कर पूछ बैठा,‘‘कौन है? कहाँ रहता है? इधर न आने की क्या वजह है?’’

उसके चेहरे पर उदासी का एक बादल तैरता सा दिखा और आँखे उन्मन उदास हो गई.

उसने टुकड़ों में जो कुछ बतलाया उसका सारांश यह था कि वह एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था जो पहले इसी गाँव के प्राइमरी मदरसे में तैनात था और जब इस कोठड़े की छत सही सलामत थी तो इसी में रहता था. बाद में कहीं तबादला होकर चला गया था. जाने के बाद गाँव में कभी बस एक बार इधर आया था.

मैंने उससे पूछा,‘‘क्या तुम्हारे पास उसका कोई पता ठिकाना है?’’

मेरे यह कहते ही मेरी ओर से पीठ फेर ली और अपने अंत:वस्त्रों से एक कई तहों में मुड़ातुड़ा कागज़ निकालकर मेरी ओर बढ़ा दिया. उस कागज़ को मैंने अतिरिक्त सावधानी से खोला, उस पर एक नाम और किसी गाँव का पता दर्ज़ था मगर कागज़ तुड़मुड़कर और चिकनाई के धब्बों से खस्ता हो चला था.

मैंने कागज़ पर लिखे पते को अपनी डायरी में उतारा और कागज़ उसे वापस कर दिया. वह खाली कटोरा और गलास ले जाते हुए बोली, ‘‘आप लिखो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूँ.’’

वह चली गई तो गहरा भावावेश अनुभव करते हुए मैंने एक काव्यात्मक पत्र लिखा. पहली वार जीवन से एक प्रेमिका के उदगारों को व्यक्त करने में मेरी सारी चेतना और संवेदना कितनी सफल हो पाई यह तो मैं नहीं बतला सकता पर मैं कुछ समय के लिए दिशा और कालबोध से परे हो ही गया.

वह आई और मुझे लिखते देखकर कुछ बोलने लगी. मैंने उसे रोका और अपना लिखा हुआ मजमून उसे देते हुए बोला, "अब तुम अपने लेखन में इस पत्र को लिखो और बाद में अपना नाम भी लिख दो. उसे यह नहीं लगना चाहिए कि इस ख़त को लिखने वाला कोई और है." साथ ही मैंने उसे एक कोरा कागज़ और कलम भी उसे दे दिया.




कोई पौन घंटे बाद वह मेरे लिखे हुए पत्र की अपने हाथ से लिखी हुई नकल लेकर आई. उसने टेढ़े मेढे अक्षरों में भरसक सावधानी बरतते हुए पूरे पत्र को मेरे दिए हुए कोरे कागज़ पर उतारा और अंत में 'आपकी अभागी मन्नो' टीप दिया था.

मैं उसका यह ‘अभागी मन्नो’ मुझे भीतर तक हिला गया और मैं अपने ही लिखे पत्र के दारुण वियोग से दहल उठा. मुझे लगा परकाया प्रवेश भी सुरक्षित नहीं है. कभी-कभी वह भी भीतर तक तोड़ डालता है. उस पर गज़ब वह भी था कि वह पत्र पढ़ते हुए वह रोई भी ज़रुर होगी क्योंकि पत्र पर आँसू के निशान मौजूद थे और उसकी आँखे गुड़हल के फूल की तरह लग रही थीं.

अनायास मेरे मुँह से एक लंबी साँस निकल गई और मैंने फैसला किया कि मुझे वहाँ से तुरंत चल देना चाहिए.

मैंने कहा,‘‘मन्नो अब मुझे जाना चाहिए.’’ एक पल बाद ही सहसा मेरे मुँह से एक असत्य उच्चारण हुआ, "मुझे आगे काफी काम है.’’

‘‘ये क्या? बाबा जी से मिले बिना ही कैसे चले जाओगे? अभी तो आपने कुछ खाया भी नहीं है. जितनी देर में बाबा जी आवें आप मंदिर की तरफ घूम आओ. हमारे गाँव की चंडी देवी बड़ी मानता वाली हैं. मन की सारी मुराद पूरी हो जाएँगी. दशहरे पर तीन दिन का बड़ा मेला लगता है. जाने कहाँ-कहाँ से दुनिया मनौती मानने आती हैं.’’

‘मुराद’ और 'मनौती' के शब्द मेरी चेतना में तैरने लगे.

मुझे लगा मन्नो का ठहरने का अनुरोध कहीं मेरे लिए बेड़ी न बन जाए. इस बैरागी मन को ठाँव कहाँ?

मैंने उसका कोई आग्रह नहीं माना. एकदम से थैला उठाकर चल पड़ा और चलते-चलते बोला, "मैं तुम्हारा ख़त किसी शहर से पोस्ट कर दूँगा."

‘‘नहीं रुकोगे? बाबा जी दुखी होंगे. कुछ खाया भी नहीं.

‘‘मैं कभी आऊँगा तो रुकूँगा और खाऊँगा भी. उसने चबूतरे, पर खड़े होकर मनुहार से कहा,‘‘ज़रूर आना.’’

उसके शब्दों के अतिशय अनुरोध ने मेरे अस्तित्व को मानों अथाह स्नेह से दुलरा दिया है. कोमल स्पर्श की ममतामई छवि को आँखों ही आँखों में बसाए मैं बरबस आगे बढ़ता चला गया.

उदासी के सैलाब में डूबे उसके चेहरे को मुड़कर देखने का साहस मैं खो चुका था.

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से. रा. यात्री
एफ-1/ ई, नया कविनगर
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

गुरुवार, 4 जून 2009

डांस थेरेपी से दूर करें लाइलाज बीमारी



नई दिल्ली. डांस सिर्फ कला ही नहीं, एक थेरेपी भी है। शरीर के सात महत्वपूर्ण अंगों का सातों भावों से सीधा संबंध होता है। यही वजह है कि न सिर्फ इस फील्ड में तमाम अनुसंधान चल रही हैं, बल्कि स्ट्रेस से लेकर डायबीटीज, स्पॉंडिलाइटिस और मोटापे तक के इलाज में इस थेरेपी की मदद ली जा रही है।

क्लासिकल डांसर नलिनी कमलिनी व हार्ट केयर फाउंडेशन द्वारा ‘स्वास्थ्य में शास्त्रीय नृत्य की भूमिका’ विषय पर की गई अध्ययन में पाया गया कि स्वस्थ रहने में शास्त्रीय नृत्य व संगीत की अहम भूमिका होती है। क्योंकि इसमें प्रदर्शित होने वाले सभी आंतरिक भावों का संबंध शरीर के विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों से होता है, इससे थायरॉयड ग्लैंड, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, हार्ट व पेट से संबंधित बीमारियों का खतरा कम होने के साथ ही बुद्घि विकास तथा शारीरिक और सौंदर्य विकास भी होता है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के पूर्व निदेशक एवं वरिष्ठ हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. पीके दवे कहते हैं कि डांस से शरीर का ब्लड सकरुलेशन ठीक रहता है। यही वजह है कि आजकल व्हील चेयर पकड़ चुके मरीजों पर भी इलाज के साथ डांस और यूजिक थेरेपी का प्रयोग किया जा रहा है।

नृत्य और शरीर के महत्वपूर्ण चक्रों का संबंध:

शरीर का पहला चक्र मुकुट के स्थान पर होता है, जिसका संबंध आशीर्वाद से होता है। दूसरा माथे के बीचोबीच बिंदी के स्थान पर होता है, इसका संबंध बुद्धि से होता है। तीसरा चक्र गर्दन में होता है, जिसका संबंध सच्चाई से होता है। चौथा चक्र दिल के पास होता है, जिसका संबंध प्रेम से होता है। पांचवां नाभि के पास होता है, जिसका संबंध संदेह से होता है।

छठां चक्र नाभि के नीचे होता है, जिसका संबंध जुड़ाव से होता है और सातवां चक्र मेरूदंड के पास होता है जहां रीढ़ की हड्डियां खत्म होती हैं, इसका संबंध डर से होता है।

यह भाव ऐसे करते हैं चक्रों को नियंत्रित

शास्त्रीय नृत्य में सभी सातों भावों को दर्शाया जाता है, जिसमें इससे जुड़े अंगों पर खिंचाव पड़ता है। मसलन आशीर्वाद का भाव लाने के लिए माथे पर, सच्चाई को प्रदर्शित करने के लिए गर्दन का और प्रेम को दर्शाने के लिए हृदय की मांसपेशियों पर दबाव डाला जाता है।

इस प्रक्रिया में इन अंगों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, रक्त संचार बढ़ता है, तनाव कम होता है और इम्यून सिस्टम भी स्ट्रॉंग होता है।

पुराना है डांस थेरेपी का इतिहास

डांस थेरेपी की शुरूआत 1940 में मैरियन चास ने अमेरिका में की थी। मैरियन एक प्रोफेशनल वेस्टर्न डांसर थी और वह डांस सिखाती भी थी। जब उसने देखा कि कुछ छात्र भावनाओं को प्रदर्शित करने में काफी दिलचस्पी रखते हैं जैसे अकेलापन, शर्माना और डर, तो उसने उन्हें डांस की तकनीक की जगह उनके मूवमेंट पर ज्यादा ध्यान दिया।

इसी दौरान कुछ डॉक्टरों ने उनके पास यह सोचकर बीमारों को भेजना शुरू किया कि उनका तनाव कम होगा और कुछ समय बाद मारिया रेड Rास सेंट एलिजाबेथ हॉस्पिटल की डांस थेरेपिस्ट बन गईं। लेकिन थेरेपी को पहचान 1966 में अमेरिका डांस थेरेपी एसोसिएशन की स्थापना के बाद ही मिली।

कहानी : अपूर्णा



“बोलो बिट्टू, तोमार नाम की? बोलो।” दादी ने पूछा तो बिट्टू ने अपनी बड़ी-बड़ी भोली आखें दादी के पोपले चेहरे पर टिका दीं। दादी ने उसे पुचकारा, ”बिट्टू बोलो, आमार नाम हिम।” पर हिम नहीं बोला। दादी के गले में बाहें डाल हंसता रहा, जैसे अपना नाम बोलने में कोई गुदगुदी होती हो।
दादी ने फिर समझाना चाहा, पर हिम वैसे ही नटखट-सा मुस्कराता रहा। फिर एकाएक आखों को गोलमटोल करता हुआ तुतला उठा, ”तोमाल नाम की?” दादी ने जैसे सोचा ही न हो, वह कुछ सकपका गई।
नाम याद करते हुए सचमुच एक गुदगुदी-सी हो गई पूरे शरीर में। दादी को यों निरुत्तर देख हिम ने समझाते हुए कहा, ”बोलो, आमाल नाम दा-दी।”
हिम दादी की गोद में ही सो गया था। दादी यों ही अंदाजा लगाने लगी, वह करीब अस्सी पार कर चुकी थी। माना कि उम्र कुछ ज्यादा ही हो चली है और वह अब छोटी-छोटी बातें भी भूल जाया करती है पर ऐसा भी क्या भुलक्कड़पन कि अपना नाम भी याद न आए। बहुत कोशिश की पर कोई फायदा नहीं।
कुछ बेचैनी-सी होने लगी, बेचैनी से भी अधिक हैरानी। पर वह भी क्या करे, बेटा मां पुकारता है, बहू तो संबोधन भी कम ही देती है और हिम तो जैसे एक ही शब्द कहना जानता है, जब देखो दादी। मां-बाबा नहीं कहता, बस एक रट दादी। फिर ध्यान आया, इन्होंने भी कभी नाम नहीं लिया। जब जरूरत पड़ी सुनो जी, और बात शुरू। वह सोचने लगी, जब उसने बहस की थी, ”नाम क्यों नहीं लेते मेरा?” तब ये हाथ मटकाते कहने लगे थे, ”सुनो जी एक ही तो गुण आया है मुझमें पत्नीव्रती पति का उसे तो न छीनो।” वे हंसने लगे थे।
अपने हाथों-पैरों को देखती है तो लगता है कि ये सूखी लकड़ियां अब होम हो जानी चाहिए। पर अपने हाथ में क्या है? आंखों की बरौनियां तक पककर सफेद हो चुकी हैं। यह लंबा सफर उसे ताउम्र भटकाता रहा… छलता रहा। वह आंखें मूंदकर फिर खोलती है, कुछ खोजने की कोशिश में - अपना नाम… अपना परिचय… क्या था भी कभी?
इसी दशहरा की तो बात है, उसका बड़ा पोता कनाडा से आया हुआ था। घर में बड़ी पूजा थी, खाते-पीते अच्छी दोपहर हो गई थी। पोते की बहू उसे खिला-पिलाकर पैर दबाने लगी तो उसके रोम-रोम ने आशीर्वाद दिया। इतने में छोटा पोता हंसकर पूछने लगा, ”चीन्हती भी है दादी, कौन पैर दबाती है?”
”अरे हां रे, तेरी दुलहिनिया है।”
”ना दादी, ये तो भाभी है।” उसने झट आंखें तरेरकर खंडन किया। ”विदेशी बहू को कहां फुरसत है मेरी सेवा की,” इस पर सुराज ने समझाया था, ”हाँ मां, ये बड़के की दुलहिन है।”
सच है उम्र का एक लंबा दौर उसने काट लिया है। पीछे पलटकर देखती है तो बचपन को सीधे-सीधे नहीं पकड़ पाती। लंबी सुरंग-सी जिंदगी… हां, उलटे-उलटे पैर लौटे तो कुछ-कुछ ध्यान आता है। हिम-सुराज के छोटे बेटे का बेटा है जिसका कोई तीन-चार साल पहले ही ब्याह हुआ था। सुराज का बड़ा बेटा कनाडा में नौकरी करता है। उसको एक बेटा और एक बेटी है जो अकसर दुर्गापूजा में घर आते हैं। इस बार भी आया था तो उसके लिए बड़ी सुंदर चिकनी-सी साड़ी लाया था, पर वह उसे बहुत नहीं पहन पाती है, माथे से सरक जाती है साड़ी। अब तो बाल भी गिनती के रह गए हैं सिर पर। उसने सिर पर हाथ फेरा… सन-से सफेद-भुट्टे जैसे बाल…।
बचपन में भुट्टे के बाल इकट्ठे किया करते थे हम… वह सोचने लगी। और सोचते हुए अपने बाबा के मकान के पिछवाड़े जा पहुंची… बरसों पीछे… मिट्टी का घर, ऊपर खपरैल की छत… पिछवाड़े में खड़ा नीम गाछ। वह संभ्रांत बंगाली परिवार की लड़की थी, उस जमाने में भी काफी आधुनिक सोच वाले थे उसके माता-पिता। मास्टर जी घर पर आते थे पढ़ाने के लिए, तब वह इसी पिछवाड़े छिप जाया करती। कभी भुट्टे के बाल अपने बालों पर ढक देती और बुढ़िया बनकर हैरानी से सोचती- क्या कभी सचमुच ऐसी ही बूढ़ी हो जाएगी वह भी? वक्त आज उसे अजीब से मोड़ पर ले आया था। आज वह बूढ़ी जर्जर अपने बचपन को टटोल रही थी।
”गड्डी… गुड्डी… ” मां पुकार रही थी, ”खित्तादा आए हैं कहां छिपी बैठी है?” पहले भी दो रोज लौट गए थे खित्तादा। मां झल्ला रही थी जब नहीं पढ़ना चाहती तो जरूरी है पढ़ाना… छोड़ो भी, लड़की है, कोई लड़का तो है नहीं कि कमाकर खिलाए। मां बड़बड़ाती हुई बाबा पर गुस्साने लगी, ”अरे लड़की को सिलाई-बिनाई सिखाना चाहिए, खूब पढ़-लिखकर क्या करेगी, अपना नाम लिख लेती है, बस हो गया।”
”अपना नाम… ” हां, यही तो टूटा तार था, उसका। उसने लिखा है अपना नाम, इन्हीं उंगलियों से… पर आज याद नहीं आ रहा। नाम… जिसे दुनिया में उजागर करने की प्रेरणा देते थे खित्तादा… हां, खित्तादा, नाम तो था क्षितिज, पर खित्तादा ही पुकारते थे सब उन्हें। कैसी जोश भरी बातें करते थे खित्तादा, ”जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है। जानती हो, हमारा देश अभी आजाद नहीं है, अंग्रेजों के शिकंजे में जकड़ा है और पराधीन जीवन व्यर्थ है। एकदम व्यर्थ…। हमें कुछ करना चाहिए, इस देश का कर्जा है हम पर, हमें उसे खून देकर भी चुकाना होगा। ये जो तुम भागती हो पढ़ने से क्या सोचती हो, तुम लड़की हो तो फारिग हो गई इस जिम्मेवारी से”
वह हैरान देखती, ”आमी की, कैनो… मैं क्या, कैसे कर सकती हूं खित्तादा?” ”तुम क्या नहीं कर सकती? देखो तुम लड़की हो, तुम्हें देखकर कोई शक भी नहीं करेगा…हमारी कितनी चिट्ठी-पतरी पहुंचा सकती हो… पर नहीं, तुम्हारे बस का नहीं। तुम तो एक डरपोक लड़की हो और पढ़ाई-लिखाई से भी तुम्हारा दूर-दूर तक वास्ता नहीं… ना-ना तुम से न होगा।” वह आज भी विह्नल हो गई है। खित्तादा ने उसकी जिंदगी को नया अर्थ दिया था, उद्देश्य दिया था।
कितनी ही बार उसने उनके जरूरी कागज इधर-उधर पहुंचाए थे, किसी को कानोकान खबर न हुई थी। एक बार कालीबाड़ी के पीछे से निकलते हुए गीली मिट्टी पर पैर फिसल गया और उसकी चीख निकल आई। गोरे सिपाही दौड़कर आए थे, घेर लिया उसे।
”किधर जाता? नाम केया तुम्हारा?” एक पल को घिग्घी बंध गई उसकी, पर फिर अगले ही पल वह और गंवारों-सी मुंह फाड़कर रोने लगी, ”आमार नाम केया।” ”केया…? वाट…? नाम बताओ… जल्दी, नहीं तो अरेस्ट कर ले जाएंगे।”
”ओई तो… आमार नाम केया, केया तुमी जानो ना? एकटा फूल होए।” और ऊपर डाल पर लगे फूल की ओर इशारा किया था उसने।
”तुम को फूल मांगटा?” गोरा हंसने लगा और डाल हिलाकर ढेरों फूल गिरा दिए उसने… नीचे हरसिंगार के सफेद-सिंदूरी फूल-ही-फूल बिछ गए थे। वह हंस ड़ी… केया, नहीं यह तो यों ही, अंग्रेजों के वाट-वाट, केया-केया सुनकर रख लिया था उसने और यही नाम काम कर गया था। बहरहाल, केया नाम भी बुरा नहीं था। खित्तादा हौले-से हंसे थे उसकी चातुरी पर।
”देखो केया, जोखिम भरा काम है यह, जान भी जा सकती है इसमें।”
”जानती हूं खित्तादा, जग्ग (यज्ञ) में आहुति तो देना ही पड़ता है। मैं तैयार हूं… आप आगे का काम बताएं,” उसने कमर कस ली थी। ऐसे कितने ही अवसर आए थे। वह घर से निकलती तो एक बार भर आंख देखती थी अपना घर और पिछवाड़े का नीम गाछ।
”काम होने पर मिलूंगी खित्तादा,” कहकर एक आशा बांधे सख्त बनकर निकल पड़ती थी। समय जैसे पींग बढ़ा रहा था, अब वह भी खित्तादा के दल और अभियान का एक जरूरी हिस्सा थी। ऐसा सिर्फ एकबार ही हुआ था कि कोई काम उसे सौंपने से मना कर दिया था खित्तादा ने।
”केनो, केनो,” पूछ-पूछकर जी हलकान कर बैठी थी वह।
”नहीं, बहुत जोखिम भरा काम है यह, और फिर ससुरारियों को किंचित शंका भी हो गई है तुम पर…।” खित्तादा अंग्रेजों को गुस्से में ससुरारी कहकर गलियाते थे।
”शक ससुरारी को नहीं, तुम्हें है खित्तादा, मेरी काबिलीयत पर, जाने दो मुझे, विश्वास करो, काम पूरा किए बिना मरूंगी नहीं मैं।” अगले रोज सुबह-सुबह एक पंजाबिन खित्तादा के दरवाजे खड़ी थी।
”क्या चाहिए? हमने पहचाना नहीं आपको?” खित्तादा ने विस्मय से पूछा तो वह झक्क से हंस दी, ”तुस्सी मैन्नू पहिचान सकदे ने? नई ना… तो ससुरारी मैन्नू किस तरा पहिचान सकदे हां? खित्तादा, तुस्सी शुबा ना करो, मैन्नू कम्म सोंपो…।”
”ओरी बाबा… तुमी अपूर्णा…, ” कहते हुए खित्तादा ने खुशी से तीन बार ताली बजाई, ”खूब भालो, खूब भालो अपूर्णा।”
हां, अपूर्णा! यही तो नाम था उसका। नहीं, सही नाम तो अपर्णा था, मगर कोलकाता में पहुंचकर अपूर्णा बन गया था फिर भी, यही सही-सगा नाम था उसका, उसकी परिणति को दर्शाता। खित्तादा ने सबसे भारी काम सौंप दिया था उसे। वह निकल पड़ी थी उसे अंजाम देने। पर उधर किसी ने मुखबिरी की और उधर गोरों ने घेर लिया खित्तादा को। खित्तादा पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। काम पूरा कर लौटी तो पता चला। लगा जैसे अपूर्णा ही रह गई वह…। कितनी लंबी बरसात रही… अपूर्णा छिप-छिपकर रोती रही।
वक्त बीतता चला गया। खित्तादा की जगह कोई न ले सका। दल के सभी साथी बिखर गए। कुछ एक तो अलग दलों में जा मिले और प्रफुल्लो दा ने नीरा दी से ब्याह कर गृहस्थी बसा ली। बाबा ने सुयोग्य वर देखकर उसे भी ब्याह दिया। वह मन में एक टीस दबाए नियति के आगे नतमस्तक हो गई। ब्याह का विरोध कर पाने का संस्कार नहीं था उसके पास। एक हूक ही रह गई कि वह भी देश के काम आती।
दीपेन रोज सुबह-सबेरे घर से निकलते और देर रात लौटते।
”सुनोजी मैं बिसेस काज से दिल्ली जा रहा हूं, सप्ताह भर में लौटूंगा, तुम्हें भय तो नहीं लगेगा?”
”मैं किसी से नहीं डरती।” एकदम सधी आवाज में अपूर्णा बोली थी। दीपेन अकसर काम से दिल्ली-कलकत्ता करते रहते। पर एक दिन कुछ ज्यादा ही विचलित दिखाई पड़ रहे थे।
”सुबह से देख रही हूं, बरामदे में चहलकदमी कर रहे हैं, कोई परेशानी है तो बताइए।”
और दीपेन ने पहली बार नजर भर कर देखा था अठारह बरस की उस दिलेर लड़की को।
”जानती हो, मेरे जीवन का एक मिशन है, एक ध्येय-आजादी…सुराज…अपना देश…अपना राज…किसी की गुलामी नहीं…सुराज…सुराज।”
अपूर्णा को लगा जैसे उसका जन्म फिर अर्थ खोजने लगा। वह अपना टूटा तार फिर से जोड़ने लगी और बुलंद इरादों से खड़ी हो गई दीपेन के साथ। कदम-कदम पर खतरों से खेलना उसकी और दीपेन की दिनचर्या बन गई थी। दीपेन गर्म दल के सक्रिय कार्यकर्ता थे, स्वतंत्रता की ललक सर चढ़कर बोल रही थी। एक दिन उन्होंने अंग्रेज कलेक्टर पर बम फेंका, उन पर मुकदमा चला और वंदेमातरम का नारा लगाते वे फांसी के फंदे पर झूल गए। अपूर्णा ने वैधव्य का सिंगार ओढ़ लिया। सूना माथा, सूने हाथ… शाखा-पोला, सब धरा का धरा रह गया। फिर पंद्रह अगस्त आया…स्वतंत्राता मिली…मिशन पूरा हुआ… खित्तादा का मिशन… दीपेन का मिशन। अपूर्णा का मिशन भी ठीक उसी रोज पूरा हुआ।
”मुबारक हो दीदी, बेटा हुआ है… नाम सोचा है कुछ?” ”सुराज।” अपूर्णा की मुंदी आंखों से जलधार बह निकली।
आज भी नयन कोर गीले हो गए बूढ़ी अपर्णा के। किंतु नहीं… वह अपर्णा थी ही कब… वक्त के हाथों नाचती कठपुतली थी वह। उसे गाना अच्छा लगता था, पर बाबा की इच्छा थी वह पढ़े, उसने पढ़ा-बंगला, हिंदी और थोड़ी अंग्रेजी भी। खित्तादा ने सिखाया देश पर उत्सर्ग होना…खुद उत्सर्ग हो गए। दीपेन की संगिनी बनी…दीपेन ने साथ छोड़ दिया। नीरा दी उसे कितना भाती थी। भर हाथ लाल-लाल चूडियां, तांत की लाल पाड़ की साड़ी, माथे पर बड़ी-सी टिकुली और मांग में टिहु-टिहु लाल सिंदूर। वह देखती थी खुद को… ऐसे ही चूड़ियां छनकाते…सुराज के पीछे भागते…वह चाहती थी कि सुराज उसे दौड़ा-दौड़ाकर थका दे… पूछ-पूछकर, बोल-बोलकर माथा थका दे। पर सुराज बिलकुल उलट था। शुरू से ही धीर-गंभीर, समझदार। वह बहुत भांपकर चलता था कि कभी उसके किए से मां को कोई तकलीफ न पहुंचे, बहू भी खूब ध्यान रखती थी अपर्णा का।
लेकिन फिर भी, जिंदगी शायद नाम ही समझौतों का है। जब सुराज के बड़े बेटे को कनाडा जाना था नौकरी करने, तब वह कितना आहत हुई थी। पढ़ाई-लिखाई की यहां, लायक बनाया इस देश ने और सेवा करने चल दिया दूसरे देश? सुराज ने समझा-बहला दिया उसे। फिर उस रोज जब पासपोर्ट वाला बाबू छानबीन करने घर आया था और पोते ने उसकी हथेली पर सौ का एक नोट धर दिया था तब सुराज ने तो अनदेखा कर दिया पर वह न कर सकी… बिलकुल ही टूट गई वह। क्या इसी दिन के लिए जान हथेली पर लिए फिरते थे हम सब… क्या इसी दिन के लिए खित्तादा ने, दीपेन ने अपनी जान उत्सर्ग की? उसकी जिंदगी का आधे से अधिक हिस्सा, सुराजेर मां के नाम से जाना जाता रहा… क्या यही था सुराज?
हिम जाग गया था और दा-दी पुकारकर उससे लिपट गया। कितनी मिठास थी इस एक संबोधन में- जैसे उसके मन का सारा अवसाद ब्लाटिंग पेपर की तरह जज्ब कर लिया हो हिम ने। वह झूल गया था दादी की टहनी-सी बांह पर और लगा जैसे उसने हिला दी हो डाली फूलों की- ”तुम को फूल मांगता?”… और हर ओर जैसे हरसिंगार के सफेद-सिंदूरी फूल-ही-फूल बिखर गए हों। जिंदगी आंख मिचौली खेलती उसी से पूछ रही थी। कौन हो तुम पूर्णा… या अपूर्णा…

इंटेलिपीडिया क्या है?


ऑनलाइन इनसाइक्लोपीडिया विकिपीडिया की तरह इंटेलिपीडिया ऑनलाइन सिस्टम है जिसका उपयोग अमेरिकी सुरक्षा से जुड़ी एजेंसियाँ और गुप्तचर विभाग करता है। इस इंटेलिपीडिया का उपयोग अमेरिकी आंतरिक सुरक्षा से जुड़े विभाग जानकारियों के आदान-प्रदान और जानकारी प्राप्त करने के लिए करते हैं।

आम अमेरिकी जनता इसका उपयोग नहीं कर पाती है। इसकी शुरुआत अमेरिकी इंटेलीजेंस में जार माने जाने वाले जॉन निग्रोपॉन ने की थी। सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले विश्लेषक और अधिकारी इंटेलिपीडिया के कंटेट में किसी भी तरह का फेरबदल कर पाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हम वीकिपीडिया पर किसी भी जानकारी में इजाफा या सुधार कर सकते हैं। २००५ के आखिर में इंटेलिपीडिया पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया और अप्रैल १७, २००६ को इसकी घोषणा कर दी गई कि यह जारी रहेगा।

३-जी टेक्नोलॉजी क्या है?


थ्री-जी से सीधा अर्थ है टेलीकम्युनिकेशन में तीसरी पायदान। मोबाइल फोन की पहली और दूसरी जेनरेशन ने संचार जगत में जो क्रांति की , ३-जी उसी का विस्तार है। पहली जेनरेशन के मोबाइल फोन के जरिए लोग एक दूसरे से बात तो कर सकते थे पर फोन को टेलीफोन नेटवर्क में जोड़ना पड़ता था। दूसरी जेनरेशन के मोबाइल फोन के जरिए यूजर्स को ज्यादा सुविधा मिली और सेलफोन डिजिटल नेटवर्क की मदद से चलने लगे।

आज मोबाइल फोन ने हमारी दुनिया में क्रांति कर दी है। 3-जी नई क्रांति है। इस 3-जी टेक्नोलॉजी की मदद से मोबाइल फोन यूजर्स वीडियो कॉल्स और वायरलेस इंटरनेट जैसी सुविधाओं का उपयोग सेलफोन पर कर पाते हैं। 3-जी टेक्नोलॉजी के बाद अब 4-जी टेकनोलॉजी के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं।

बुधवार, 3 जून 2009

सम्बलपुर एक्सप्रेस




‘‘साहेब, नमस्कार! आइए, चाह पी लीजिए’’

गुप्ता जी थोड़े चिढ़ गए. शाम का टहलना अगर तेज़ कदमों से हो, गहरी साँसे लेते हुए, तभी उसका कुछ मतलब है. ऐसे रुकते-अटकते रहे... मगर एक अचरज ने इस चिढ़ को भुला दिया. ये पुकार तो सम्बल की है! सम्बल यानी सम्बलपुर एक्सप्रेस- सम्राट होटल में पानी सर्व करने वाला झक्की, हड़बड़िया उड़िया बेयरा. गुप्ता जी चाय से पहले डेढ़ दो गिलास पानी ज़रूर पीते थे, इसीलिए इस काले लंबे और हड़ियल अधेड़ उड़िया के वे ख़ास ग्राहक थे.

‘अरे, सम्राट छोड़ दिए का यार?’

उन्होंने पूछा,‘‘ओ बहुत बईमान आदमी है साहेब.’’ सम्बल ने उत्साहपूर्वक, बल्कि, हँसते हुए कहा. एक चाय ढेले में स्टोव, भगौने, ब्रेड वगैरह के पीछे मालिक के रूप में खड़ा वह अजीब लग रहा था. जैसे किसी दूसरे के ढेले पर छुट्टियाँ मना रहा हो.

‘मेरा पनरा सौ दबा दिया साहेब’ उसने बताया. बताने का ढंग शिकायत का कम था, गर्व का अधिक.

‘अरे! कैसे? ’ गुप्ता जी ने पूछा.

‘सीधे बोल दिया कि तुम्हारा कुछ निकलता नईं.’ सम्बल ने लापरवाही से बताया, फिर यह भी जोड़ा-‘बईमान है, एकदम बईमान.’

‘ठीक बोल रहा है,‘गुप्ता जी के साथ सांध्य-भ्रमण पर निकले चोबे जी ने कहा. चौबे जी आराम कायल थे और इस मूड में थे कि चाय-वाय पीकर बढ़ा जाए.

गुप्ता जी की तनिक रुष्ट व प्रश्नवाचक दृष्टि को अनदेखा करते हुए उन्होंने फिर से कहा, ‘‘बिल्कुल ठीक. वो, सोनी तो साला है ही बेईमान.’’

‘चाह, बनाऊँ साहेब?’ सम्बल ने पूछा,‘‘फस्कलास बनाऊँगा-कड़क.

‘चलो पी लेते हैं. फिर चले चलेंगे.’ चौबे जी ने भी जोड़ दिया.

दोनों बाजू में रखे बेंच पर बैठे.


अऊ जेतना हरामी टाइप के होटल-लॉज वाला रहता है ना, ऊ सब ऐसन हीं करमचारी खोजता है, जो बइल जइसा खटे, कुकुर जइसा पोंछी हिलाए अरू हिसाब-किताब में गदहा हो एकदम



मालूम हुआ कि एक भूतपूर्व ढेले से सम्बल ने ये सारा जुगाड़- ठेला, बरतन, स्टोव, बेंच सब किराए पर लिया है. सुबह भजिया भी बनाया -रोज़ बनाएगा. बाकी दिन भर ब्रेड-बिस्कुट-चाय चलेगी. ‘आछा से मेहनत करेगा अउर भगवान चाहेगा तो...’

चाय भी ठीक-ठाक थी. ‘चाए तो समराट से बीसे है गुरू,’ चौबे जी ने मत दिया.

वहाँ से निकले तो गुप्ता जी का सांध्य-भ्रमण-जनित-स्वास्थ्य लाभ लेने का उत्साह थोड़ा ठंडा पड़ गया.

आराम से चलते हुए तनिक दार्शनिक उदारता से उन्होंने कहा- ‘बिचारा बुद्धू टाइप का है, समझ नहीं पाता, पता नहीं कितना सही बोल रहा है."

‘बुधू नहीं, मंदबुधि है-रिटारडेड.’ चौबे जी ने बताया-‘अऊ जेतना हरामी टाइप के होटल-लॉज वाला रहता है ना, ऊ सब ऐसन हीं करमचारी खोजता है, जो बइल जइसा खटे, कुकुर जइसा पोंछी हिलाए अरू हिसाब-किताब में गदहा हो एकदम.'

बात अकाट्य थी. गुप्ताजी सोच में पड़ गए. ‘सोनी को तो आप भी सुरुवे से जानते हैं ना?’’ चौबे जी ने बात जारी रखी. ‘अइसने ढेला नहीं लगाता था पहिले! त एतना कइसे बढ़ गया! तीन मंजिला, एयरकंडीसन होटल खोल दिया!’

‘बिचारा मेनहत भी बहुत किया है यार' , गुप्ता जी ने कहा.




‘मेहनत-फेहनत तो सबे करते हैं महराज.’ चौबे जी ने वितृष्णा से कहा-‘‘हाँ, बल्कि इ कहिए कि चलाक बहुत है, भारी लंद-फंदिया है अऊ सबसे ऊपर, किस्मत का साँड़ है. सबको लूटता है अऊ सबको पटाकर रखता है. ’’

‘व्यापार में तो भाई, सबको खुश रखना ही पड़ता है.’ गुप्ता जी ने तर्क दिया तो चौबे जी और चिढ़ गए.

‘देखिएगा, इ जब ना मरे.’ उन्होने कहा,‘‘जइनस ऊ बढ़-चढ़ के खेल रहा है ना, सबे के आँख में गड़ रहा है. इ एक कदम लड़खड़ाया तो चार जने ढकेल के गिरा देंगे अऊ दस जाने कुच के चल देंगे.’

‘अमृत पीकर तो यहाँ कोई नहीं आया है.’ गुप्ता जी ने कहा, फिर जैसे बात का समापन किया-छोड़ो यार, हमारा कौन वो पंद्रह सौ दबाया है-मरे या जिए, अपनी बला से.’

‘इ सम्बलपुर एक्सप्रेस भी, बड़ा खुसी-खुसी बता रहा था कि मेरा पनरा सौ दबा दिया.’ चौबे जी ने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘एतना खुश काहे था? बल्कि कहिए कि एतना खुश कइसे था.’’

इसके लगभग पंद्रह दिनों बाद चौबे जी प्रोफेसर सिन्हा के साथ टहलते हुए उधर निकले, तो सम्बल ने फिर हाँक लगाई.

‘नमस्कार साहेब! आइए, चाह, पी लीजिए.’

दोनों बैठे. चौबे जी ने ध्यान दिया कि ठेले की हालत खस्ता है. भजिया-बिस्कुट वगैरह गायब है, बस एक-एक रुपए वाली दो चार डबल रोटियाँ बची हैं. सम्बल भी थोड़ा और दुबला, मैला और काला सा दिख रहा है.

‘कइसा चल रहा है जी’ उन्होंने पूछ भी लिया.

‘ठीक है साहेब.’ उत्तर में कृतज्ञता भरी मुस्कान भी थी, फिर उत्साह से उसने कहा.

‘जानते है, आज बईमान न सहर छोड़के कही भाग गया है.’

‘कौन, सोनी?’ चौबे जी ने पूछा.

सम्बल ने मस्ती में तीन-चार बार सिर डुलाया. यानि जी हाँ जनाब, वही.

'क्यों, क्या हो गया?'


एक थोड़ी मेंटल केस लड़की से उसका चक्कर था. अब ये इडियट समझ नहीं पाया. परसों शाम को लड़की इसके होटल में आ गई. ये कुछ बोल दिया तो वो फार्म में आ गई, भारी न्यूसेंस क्रिएट कर दी. सोनी ने उसे बाहर निकलवा दिया तो वो सीधे थाने चली गई, एफआईआर करवा दी. अब पुलिस की चांदी है. अभी अरेस्ट नहीं करने का पैसा लेंगे.



‘एकदम ख़राब वाला केस था साहेब, लड़की के साथ जबरजस्ती वाला. पुलिस खोज रहा है. ’

चौबे जी को थोड़ा अचरज हुआ. सोनी बच-बच के खेलने वाला खिलाड़ी था-ऐसी गफ़लत उससे कैसे हो गई?

‘भागेगा तो कहाँ भागेगा? चाय छानते हुए सम्बल ने मुदित स्वर में कहा-‘कल नई पकड़ेगा तो परसों पकड़ लेगा. गरीब आदमी का पईसा खा के बचेगा नई. है ना साहिब?’

चाय सामने धरकर सम्बल तनिक दूर बैठकर बर्तन साफ करने लगा. चौबे जी ने सिन्हा सर से धीरे से कहा-

‘इ मूरख अपना धंधा नहीं देख रहा है. इसी में लहालोट है कि पुलिस सोनी को पकड़ा रही है. अजीब पगलेट है.’

"एक्चुअली हुआ क्या कि..." सिन्हा सर अधिकृ़त, विस्तृत और विधिवतक बोलने वाले आदमी थे. बताने लगे कि एक थोड़ी मेंटल केस लड़की से उसका चक्कर था. अब ये इडियट समझ नहीं पाया. परसों शाम को लड़की इसके होटल में आ गई. ये कुछ बोल दिया तो वो फार्म में आ गई, भारी न्यूसेंस क्रिएट कर दी. सोनी ने उसे बाहर निकलवा दिया तो वो सीधे थाने चली गई, एफआईआर करवा दी. अब पुलिस की चांदी है. अभी अरेस्ट नहीं करने का पैसा लेंगे. फिर अरेस्ट करेंगे तो गाली-गुप्ता नहीं करने का पैसा लेंगे, फिर नहीं मारने-पीटने का पैसा लेंगे, रिमांड पर नहीं लेने का पैसा लेंगे. यही तो एक ऐसा डिपार्टमेंट है जो कुछ करने का नहीं, बल्कि कुछ नहीं करने का पैसा लेता है. एक्चुअली इंडिया के सिस्टम में...

चौबेजी ने महसूस किया कि चाय निहायत बुरी बनी है.

‘चाय बनाए हो कि क्या बनाए हो यार’ बुरा सा मुँह बना कर उन्होंने सम्बल को कोसा.

‘उसको मत पीजिए साहेब.’ सम्बल ने तत्परता से कहा,‘एक मिनट में दूसरा बना देता हूँ.’

"एक्चुअली क्या है कि..." से शुरू करके सिन्हा सर इस बार चायपत्ती के मार्केट से लेकर उपभोरक्तावाद, क्रिक्रेट, फ़िल्म स्टार, टीबी के कार्यक्रमों के बारे में सदाबहार, अधिकृत और विस्तृत ढंग से बोलते रहे. जब तक कि फिर चाय न आ गई जो कदरन काफी बेहतर थी. पैसे भी सम्बल एक ही बार की चाय के ले रहा था पर गुप्ता जी ने जबरन दोनों बार के दिए. सिन्हा सर ने इस संव्यवहार पर भी एक छोटा सा प्रवचन किया, पर तब तक चौबे जी का मूड काफी उखड़ चुका था, सो बात ख़त्म हुई.

इसके 10-12 मिनट दिनों के बाद प्रोफेसर सिन्हा से सम्बल की मुलाकात सब्ज़ी मार्केट में हुई. इतवार का दिन था. सिन्हा सर इतवारी बाज़ार के बाहर स्कूटर स्टैंड पर खड़े थे. स्टैंड वाला कहीं चिल्लर लेने गया था. सिन्हा सर स्कूटर को स्टैंड में ही रखते थे. आजकल चोरियाँ कितनी बढ़ गई हैं. उन्हें थोड़ा गुस्सा भी आ रहा था. तभी वह विनम्र व प्रसन्न पुकार आई.

‘साहेब, नमस्कार. भाजी लेने आए हैं?’

सम्बल कंघे पर एक बाँस टिकाए खड़ा था. बाँस के सिर पर धागों से लटकी 20-25 पॉलीथीन के थैलों में हवाई मिठाई थी. एक-एक रूपए वाली.

‘चाय ठेला बंद कर दिया क्या यार’! उन्होंने बेमन से पूछा.




‘फायदा नई था उसमें’ सम्बल ने मुस्कुराते हुए कहा.

‘और इसमें?' सिन्हा सर ने व्यंग्य से पूछा.

‘ये ठीक काम है साहेब.’ सम्बल को व्यंग्य से मलतब नहीं था, ‘धूमेगा-फिरेगा तो चालीस-पचास रुपए मिल जाएगा.’

सिन्हा सर ने गौर किया, सम्बल की हालत बहुत ख़स्ता थी. वह एकदम मैला-कुचैला, बदरंग और फटेहाल नज़र आ रहा था. पर चेहरे पर संतुष्टि व बेफीक्री थी.

‘चलो, ठीक है...’ वे बुदबुदाकर रह गए.

‘मालूम है’? अचानक सम्बल ने उत्साह से और राज़दाराना ढंग से कहा- "बईमान को हाड-अटेक हो गया है, बहिरे ले गया है."

‘अच्छा.’ सिन्हा सर ने बेमन से कहा

‘सक्कर का बेमारी तो पहले से था.’ सम्बल ने मुस्कुराते हुए कहा-गुस्सा बहुत करता है ना. हम भी पईसा मांगा था तो...

‘ओय हवाई मिठाई. !’ एक आदमी ने पुराकर लगाई साथ एक छोटा बच्चा भी था. बच्चा ऊँगली उठाकर कुछ बोल रहा था.

तब तक स्टैंड वाला लड़का भी आ गया. स्कूटर उसके हवाले करके सिन्हा सर मार्केट की ओर बढ़े तो वे सम्बल की बगल से गुज़रे.

सम्बल उस आदमी को सम्राट होटल वाले सोनी के हार्ट-अटैक की सूचना दे रहा था. तत्परता और मुस्कान के साथ.

कमबख़्त, अजीब जीवट आदमी है. सिन्हा सर ने सोचा और हँस पड़े.

प्रभु नारायण वर्मा

सोमवार, 1 जून 2009

दरवाज़ा अंदर खुलता है



कहानी
इस जगह से थोड़ी ही दूर पर वह घर है. उस घर में सिर्फ़ एक दरवाज़ा है. वह दरवाज़ा घर के अंदर खुलता है. घर में न कोई खिड़की है, न रोशनदान है. चारों तरफ ऊँची-ऊँची दीवारें हैं और सिर्फ़ कच्चा आँगन. आँगन में एक कुआँ है. एक अमरूद का, एक करौंदे का और एक नीम का पेड़ है.

नीम के पेड़ के चारों तरफ गोलाई में एक चबूतरा है. चबूतरे पर बीट पड़ी रहती है, जिनसे पता चलता है कि पेड़ पर पक्षी रहते हैं. घर में और कोई नहीं रहता. कोने में एक छोटी सी कोठरी है जो बंद रहती है. उसकी छोटी-सी खिड़की टूटी हुई है, जिससे झाँककर देखो तो वहाँ लकड़ी का एक पुराना संदूक, एक निवाड़ का पलंग और लोहे की दो छोटी तिपाइयाँ नज़र आती हैं. कोठरी का फर्श टूटा हुआ है. दीवार में एक बड़ा-सा आला है...

उन्होंने बताया था, “कोठरी कई बरसों से खोली नहीं गई है. यह उस कोठरी की चाबी है लेकिन इससे ताला नहीं खुलेगा. तुम यह तेल भी ले जाओ. ताला चिकनाई पाकर नरम पड़ जाएगा और चाबी घूम जाएगी. तुम्हें पहले कोठरी की सफ़ाई करनी होगी. इसके बाद तुम अपना सामान वहाँ जमा लेना. दो-चार रोज़ में कुएँ की सफ़ाई करा देंगे. यह घर तुम्हारे रहने लायक बन जाएगा. पहले हमारी बुआ वहाँ रहती थी. उसके मरने के बाद एक चौकीदार रखा था, पर वह हफ्ते-भर में ही भाग खड़ा हुआ. तुम अब भी सोच लो. तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?” उन्होंने पूछा था.

उस घर के आसपास कोई दूसरा घर नहीं है. उन्होंने यह बताया था और कहा था कि ढलान पर एक पुराना मंदिर है. उससे थोड़ी दूरी पर यह घर है. घर में मंदिर के घंटे की सुबह-शाम आवाज़ आती है. दिन में बीसियों लोग घर के सामने से गुज़रते हैं.

घर से थोड़ी दूर नदी है जो बरसात में चढ़ जाती है. तब पानी आँगन में आ जाता है. लेकिन इधर कुछ बरसों से नदी ने भी चढ़ना बंद कर दिया है. बरसात के महीनों को छोड़कर पूरे साल वह एक नाले-सी बनी रहती है. नदी पार करने के लिए पानी वाली जगह पर खूजर के दो पेड़ रख दिए गए हैं. लोग इनपर चलकर नदी पार करते हैं. नदी के पार काफ़ी दूर तक खेत हैं. उसके बाद आमने-सामने गाँव हैं.
“दिशा-मैदान के लिए तुम नदी के पास खेतों में जा सकते हो. दिन में तो घर के सामने की कच्ची सड़क चलती रहती है. रात को भी वहाँ कोई डर नहीं होना चाहिए. चोर-लुटेरा वहाँ से क्या ले जाएगा? तुम सफ़ाई करके सामान जमा लो, फिर घर से लोटा-बाल्टी और लालटेन ले जाना. तुम्हें वहाँ असुविधा नहीं होनी चाहिए”. उन्होंने एक ही साँस में सब बता दिया था.उसे असुविधा शब्द सुनकर हल्की-सी हँसी आई लेकिन उसने उस पर तुंरत काबू पा लिया. उसे कोई असुविधा अब नहीं होती. न किसी चीज़ से डर लगता है. पहले उसे अकेलेपन से ऊब होती थी. अब उसे अकेलेपन से न ऊब होती है न डर लगता है.
वह ऐसे ही अहातेनुमा घरों में रहने का आदी हो गया है. वह एक ट्यूबवेल ऑपरेटर था. किसानों को पानी देता था. वे उससे सिंचाई करते थे. कई किसानों ने उसे प्रलोभन दिया कि वह उन्हें जितना पानी देता है, उसका 10-20 फीसदी ही किताबों को दिखाए और शेष पानी का जितना पैसा बनता हो उसका आधा उनसे नक़द ले ले.
शीशा कुछ जगह खुरदरा-सा था, लेकिन बूढ़ी औरत की तस्वीर जैसे एक आश्वस्तकारी ख़ुशी के साथ उसका स्वागत कर रही थी. यह आवाज़ भीतर से उठ रही थी. और तस्वीर में उसे उसकी मौन प्रतिध्वनि महसूस होती थी. उसे लगा कि इन कोठरी ने तो जैसे पेड़, पक्षी और कुएँ से भी ज़्यादा आत्मीयता से उसका स्वागत किया हो

उसका दिल नहीं ठुकता था. वह सोचता था कि वह अकेला प्राणी है. न घर, न बाहर. न बाल, न बच्चा. न रिश्तेदार, न दोस्त. उसे जो तनख़्वाह मिलती है उससे उसका काम आसानी से चल जाता है और कुछ पैसा बचाकर वह हर महीने डाकखाने में जमा भी कर देता है. खेतों-गाँवों में घूमते उसका टाइम आसानी से कट जाता है. ख़ुद खाना बनाने, कपड़े थोने और सौदा-सुफल लाने में उसे मज़ा आता है. रोज़ाना वह अपनी किताबों में पानी का हिसाब दर्ज करता है.

शहर जाता है तो एकाध पत्रिका भी ख़रीद लाता है. पढ़कर उसे अच्छा लगता है. बचपन से उसने देवकीनंदन खत्री, वृंदावनलाल वर्मा, प्रेमचंद वगैरह के उपन्यास पढ़े हैं और पढ़ने का आनंद उठाया है. उसे कभी लालच नहीं आया. उसने किसानों की चौपालों में उनके साथ यदा-कदा हुक्का तो ज़रूर गुड़गुड़ाया, लेकिन किसी से कभी कुछ और लेने की तमन्ना नहीं रखी.

उसने किसानों पर यकीन किया क्योंकि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़कर उसकी यह समझ बनी थी कि किसान परिश्रमी भले ही नहीं, पर ईमानदार और सच्चे होते हैं. ऐसा मानकर उसने एक बार किसान पर भरोसा किया, जिसने उसे सैकड़ों रुपयों का चूना लगा दिया. वह न केवल मुफ़्त में उसके सरकारी ट्यूबवेल का पानी अपने खेतों के लिए खींचता रहा, बल्कि औरों को भी बेचता रहा. ज़रूरत से ज़्यादा चलने के कारण ट्यूबवेल की मोटर फुंक गई और असिस्टेंट इंजीनियर द्वारा अचानक की गई जाँच में वह पकड़ा गया. उस दिन उसे बहुत डर लगा. उसी दिन उसे सबसे ज़्यादा दुख हुआ.

उसके माँ-बाप बचपन में ही चल बसे थे. उसकी बड़ी बहन ने उसे पाला-पोसा था. वह भी उसके 12वीं पास करते ही चल बसी थी. उसके बाद उसने बहुत धक्के खाए. चौकीदारी और बागवानी की. एक असिस्टेंट इंजीनियर को उस पर रहम आ गया और उसने उसे नलकूप विभाग में ऑपरेटर रखवा दिया. उसकी किस्मत अच्छी थी कि उसकी नौकरी एक के बाद दूसरे साल बढ़ती चली गई, लेकिन 11 साल की सर्विस के बाद भी वह पक्का नहीं हुआ. उसके बाद कई छोटे-मोटे काम करता हुआ 40 साल की उम्र में वह धनीराम कानूनगो के संपर्क में आया. धनीराम ने यह अहाता उसे रहने के लिए दे दिया और शर्त रखी कि वह उसकी किताबें वगैरह भर दिया करेगा. इसके बदले वह उसे पैसे भी देगा. वह चाहे तो धनीराम के घर के बाहर चबूतरे की ड्योढ़ी में बैठकर यह काम करे या इस अहाते में. उसने अहाते को चुना.

धनीराम ने सही कहा था. अहाते का दरवाज़ा अंदर की तरफ खुलता था. उस पर कोई ताला नहीं लगा था. ताला कोठरी के दरवाज़े पर था और उसमें जंग लगा था. उसे खोलने में उसे काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी थी. चाबी घूमती ही नहीं थी. उसे दम लगाना पड़ा था. कुछ नहीं हुआ था. उसने कुप्पी से तेल डाला. फिर भी नरम भी न पड़ा. दोपहर का वक़्त था. लेकिन हवा बह रही थी. पेड़ हिलते थे. इक्का-दुक्का पक्षी चहकते थे, पर नज़र नहीं आते थे. वह नीम के पेड़ के पास आकर ऊपर देखने लगा. उसे बेहद खुशी हुई. वहाँ बीसियों पक्षी बैठे थे. उसने सोचा, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा, जिससे पक्षी परेशान हों. उसने सबसे पहले नीम के पेड़ के चारों ओर बने उस चबूतरे को साफ़ किया. चबूतरे का फर्श सीमेंट का बना था. वह कभी चिकना रहा होगा. अब उस पर ऋतुओं के धुंधले-से निशान थे. कहीं-कहीं बीच में घास दिखती थी. उस पर कुछ टूटे हुए पंख पड़े थे. पर सबसे ज़्यादा बीटें थीं. ज़रा-सी कोशिश से चबूतरे की रूह निकल आई. उसने सोचा, कोठरी न खुलती हो तो न खुले, वह पेड़ के नीचे इस चबूतरें पर अपना सामान रख देगा. जाड़े खत्म हो चुके हैं. रातें ठंडी ज़रूर हैं, लेकिन वह उन्हें बर्दाश्त कर सकता है.

उसने अहाते का चक्कर लगाया. जगह-जगह घास उग आई थी. अहाता बड़ा था. कुएँ की जगत की लकड़ी जर्जर हो गई थी. नीचे गहरा कुआँ था. उसकी दीवारें समय की खरोंचों से निरापद लग रही थीं. नीचे पुराना पानी शांत होकर ठहरा हुआ था. उसका मन हुआ, वह आवाज़ दे. उसने कुएँ में मुँह नीचा करके जोर से कहा ‘गिरधारीलाल!’ कुएँ ने तत्काल उसे स्वागत में जोर से कहा ‘गिरधारीलाल’. उसे बेहद ख़ुशी हुई. उसने सोचा, कुआँ सचमुच आत्मीयता से भरा है. इस नई जगह पर इसने ही मुझे पहली बार मुझे मेरे होने का अहसास कराया. फिर जोर से कहा ‘गिरधारीलाल’ आवाज़ उसकी ख़ुशी को संभाल नहीं पा रही थी. उसे लगा कि उसमें नया बल और नई स्फूर्ति आ गई है. तभी कोई कोई पक्षी चहचहाया. उसकी देखा-देखी कुछ और पक्षी चहचाहे. उसे लगा कि उसके स्वागत में जैसे उसके रिश्तेदार हुलस रहे हों. उसने सोचा, अब कोठरी का ताला खुल जाना चाहिए.




वह कोठरी के दरवाज़े पर आ गया. उसने फिर चाबी घुमानी शुरू की. शायद पक्षियों और कुएँ की प्रतिक्रिया को देखकर अब ताला भी नरम पड़ गया था. ताली घूम गई. दरवाज़ा खुल गया और बाहर छोटी-सी खिड़की से देखने पर जो दिखाई नहीं देता था, वह सब भी दिखाई देने लगा. अंदर एक पुराना चित्र लगा था, जिस पर जाले फैल गए थे. एक जगह पर एक मकड़ी जैसे अटकी-सी थी. उसने शीशा साफ़ किया तो उसके पीछे एक बूढ़ी औरत का चित्र उभर आया. उसके चेहरे पर वात्सल्य और ममता की रोशनी थी, जो इतने वर्षों में भी बुझी नहीं थी. हालांकि लकड़ी का फ़्रेम कुएँ की जगत की तरह ही जर्जर था. शीशा कुछ जगह खुरदरा-सा था, लेकिन बूढ़ी औरत की तस्वीर जैसे एक आश्वस्तकारी ख़ुशी के साथ उसका स्वागत कर रही थी. यह आवाज़ भीतर से उठ रही थी. और तस्वीर में उसे उसकी मौन प्रतिध्वनि महसूस होती थी. उसे लगा कि इन कोठरी ने तो जैसे पेड़, पक्षी और कुएँ से भी ज़्यादा आत्मीयता से उसका स्वागत किया हो.

वह कोठरी साफ़ करने में जुट गया. घंटे-डेढ़ घंटे में वह अपनी सादगी में दीप्त हो उठी. सूरज अब कोठरी के भीतर आ गया था और उसकी गर्म हवा चीज़ों के चेहरों को पोंछ रही थी. उसे लगा अब उसे धनीराम के घर से अपना सामान ले आना चाहिए. निवाड़ की चारपाई को ख़ूब झाड़-पोंछकर उसने कोठरी के बाहर धूप में रख दिया ताकि सूरज उसे उसकी तमाम गंधों से मुक्त कर अपनी निर्मल महक से सुवासित कर सके.

10-15 दिनों में ही धनीराम कानूनगो के इस अहाते को गिरधारीलाल ने चमका डाला. कई जगह क्यारियों में गेंदे और गुलाब के पौधे लगा दिए गए. कुएँ की सफ़ाई करके उसमें पोटेशियम परमेगनेट डाल दिया गया. पानी के ज़्यादा इस्तेमाल के कारण उस पुराने कुएँ का पानी ठंडेपन और ताज़गी में अपने से पहले के हर पानी से होड़ लेने लगा. दरअसल वह स्रोत फिर से जीवंत हो गया था. जैसे ही बाल्टी कुएँ में गिरती, एक मीठी आवाज़ होती, जैसे कुएँ में कोई गाने के लिए उतावला हो. फिर लहरों में बाल्टी में घुसने की होड़ लग जाती. ऊपर आती बाल्टी से छलकता पानी जैसे अपनी ख़ुशी न संभाल पाता हो. अहा! कितने वर्षों के बाद उसका कोई इस्तेमाल कर रहा है. और इस इस्तेमाल में भी पानी को बर्बाद करने का नहीं, बल्कि बचाने का आत्मीय भाव है. कुएँ ने कोठरी से लेकर चबूतरे तक और तीनों पेड़ों से लेकर बीसियों-तीसियों पक्षियों तक में नया जीवन डाल दिया था.

वह रोज़ पेक्षों की जड़ों में पानी देता. चबूतरे को साफ करता और धनीराम कानूनगो की किताबों में एंट्री करता रहता. उसके पास वक़्त कम हो गया था. अब उसे पढ़ने का टाइम नहीं मिलता. वह पौधों के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं निकाल पाता. किताबें भरते-भरते उसका मन ऊब जाता तो वह चाहता कि कुएँ से बतियाए. पक्षियों की चहचहाहट सुने. कभी वह पेड़ के ऊपर चढ़ जाता. शुरू-शुरू में पक्षी डरकर उड़ जाते थे पर धीरे-धीरे वे अभ्यस्त हो गए. वह ऊपर चढ़कर उनके घोंसलों में झाँक आता. और कभी-कभी पेड़ की डाल पर बैठकर कोई पुरानी किताब पढ़ता. वहाँ कई बार उसकी आँख लग जाती. पक्षी उस पर निगाह रखते-जैसे माँ सारे काम करते हुए, अपने बच्चों पर निगाह रखती है. जैसे ही उन्हें लगता कि गिरधारीलाल गिर जाएगा, वे जोर-जोर से चहचहाने लगते. तब वह संभल जाता और पक्षियों पर आत्मीय नज़र जालते हुए पेड़ से नीचे आता. पक्षी तब जोर-जोर से चहकते जैसे वह कह रहे हों-अभी थोड़ी देर और हमारे पास बैठो! यह सोचता कि इन पक्षियों को अपने हाथों से सहलाए. उनकी आँखों में देखते हुए अपने प्रेम और करूणा की भाषा से उनके दिल में उतर जाए.

नीचे फिर कानूनगो के बही-खाते, रजिस्टर और किताबें उसे घूरते. उसे अपने से डर लगता. वह अंदर कोठरी में बूढ़ी अम्मा के चित्र के आगे खड़ा होकर सोच में डूब जाता. उसे लगता है, उसकी माँ भी ऐसी ही रही होगी. अपने हाथ से बनाया हुआ भोजन वह पहले पक्षियों के लिए डालता और जब पक्षी उसे खा लेते तो उसे बहुत ख़ुशी मिलती. खाना खाकर वह कुएँ से बतियाता. उसका निर्मल जल उसे तृप्त कर देता. वह अपने काम में लग जाता. बीच-बीच में पौधों और फूलों के बात करता और जब पक्षी यह देखकर रूठ जाते तो उन्हें मनाता.

विवेक बाबू का विवाह हो चुका था. घर की बागडोर उनके हाथ में आ गई थी. उनका छोटा-सा व्यापार चल निकला था. अब वे पुरखों के अहाते को बेचकर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे. वे गिरधारीलाल से कई बार कह चुके थे कि बाबूजी रिटायर हो गए हैं, तुम कहीं और ठीया ढूंढ़ लो


वर्षों वह अपने बनाए उस स्वर्ग में रहता रहा. उसे न कभी अकेलापन लगा, न वह ऊबा. वह कभी बीमार भी नहीं पड़ा. बाहरी दुनिया के साथ उसका संपर्क धनीराम कानूनगो और उनके परिवार की मार्फ़त या दुकानदारों से सौदा-सुलफ खरीदने तक ही सीमित था. सुबह जब वह नदी के पास शौच को जाता तो नदी की हालत देखकर दुखी हो जाता. नदी धीरे-धीरे मरती जा रही थी, जबकि उसके अहाते के सामने की सड़क पक्की हो गई थी. नदी पर एक रपटा बन गया था. पानी की पतली-सी धारा रपटे के नीचे से बहती थी. बरसात में पानी बढ़ने पर रपटे के ऊपर से बढ़ता. जब पानी कम हो जाता तब लोग रपटे के ऊपर से नदी पार करते थे. सड़क पर आवागमन बढ़ गया था. पासवाले मंदिर से अब घंटों की आवाज़ें ज़्यादा आती थीं. बीच में कभी-कभी धनीराम कानूनगो का बेटा विवेक वहाँ आता था. अहाते की बदली हुई हालत देखकर उसे ख़ुशी होती और उसकी आँखें चमकने लगतीं. तब किसी पक्षी की बीट टप से उसकी शर्ट पर गिर जाती. गिरधारीलाल कहता,‘‘विवेक भैया, पक्षी की बीट शुभ होती है.’’ वह अपने हाथ से शर्ट पर गिरी बीट साफ़ करता और लगभग गिरने को तैयार कोई फूल विवेक को देता. यह पता नहीं चलता कि विवेक की नाराज़गी दूर हुई या नहीं.

लेकिन जैसे दूसरे दरवाज़ों, अहातों, घरों आदि का जीवन होता है, वैसा ही इस दरवाज़े का भी हुआ. एक दिन उसके बाहर कड़ी-कुंडा जड़ दिया गया. धनीराम रिटायर हो गए थे. घर पर उनका शासन खत्म हो गया था. विवेक बाबू का विवाह हो चुका था. घर की बागडोर उनके हाथ में आ गई थी. उनका छोटा-सा व्यापार चल निकला था. अब वे पुरखों के अहाते को बेचकर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे. वे गिरधारीलाल से कई बार कह चुके थे कि बाबूजी रिटायर हो गए हैं, तुम कहीं और ठीया ढूंढ़ लो. गिरधारीलाल को इस जगह से मोह हो गया था. वह यहाँ से जाना नहीं चाहता था.

जब तक धनीराम ज़िंदा रहे, गिरधारीलाल यहाँ बना रहा. उन्होंने विवेक को समझाया कि बेटे, मुफ्त में जगह की चौकीदारी हो रही है. अब तो हम गिरधारीलाल को तनख़्वाह भी नहीं देते. थोड़ी बहुत मदद कर देते हैं. पर उसने अहाते को वैसे ही चमकाकर रखा है. धनीराम के काम से मुक्त होने के कारण गिरधारीलाल का मन अब उस माहौल में और ज़्यादा लगता. वह पक्षियों के बीच खाना खाता. पौधों को दुलारता. तितलियों के पीछे भागता. हवा और पानी के साथ अपने संस्मरणों को याद करता और कुएँ से जब गिरधारीलाल की प्रतिध्वनि आती तो उसे अपने होने पर यकीन होता. उसे लगता कि ईश्वर ने उसे कितना सुख और ख़ुशी दी है.

दरवाज़े के बाहर कुंडा जड़ दिए जाने के बावजूद दरवाज़ा अभी भी अंदर ही को खुलता है. वह अंदर से ही बंद होता है जैसे पहले बंद होता था. लेकिन अब कभी भी वह बाहर से बंद किया जा सकता है और उस पर ताला ठोका जा सकता है‘‘यह सोच-सोचकर गिरधारीलाल परेशान हो जाता’’ वह सोचता, क्या इस पर्यावरण के बिना वह ज़िंदा रह सकता है? वह कुएँ में जोर से अपने को पुकारता और पाता कि कुएँ की आवाज़ में अब पहले-सी बात नहीं है. उसे लगता कि पक्षियों में भी अब रूखापन है. पौधे सूख रहे हैं और कोठरी में उसे अब डर-सा लगता है. वह उदास है कि किसी ने उसकी आत्मा को उसमें से निकाल लिया है. वह एक शव है. वह अचानक कब्रिस्तान हो गया है. वहाँ अब सन्नाटा है. पक्षी सन्नाटा गाते हैं और कुएँ से सन्नाटे की प्रतिध्वनि आती है. कोठरी में सन्नाटा है. उसे अहाते से बाहर निकाल दिया गया है विवेक कह रहा है,‘‘बाबूजी ने दया करके इसे यहाँ रख लिया और इसने यहाँ पर कब्ज़ा जमा लिया है.’’

वह नदी की ओर बढ़ रहा है. उसके पीछे अचानक पक्षियों का झुंड बढ़ा चला आ रहा है, जैसे वह ख़ुद की अपने कंधे पर अपनी अर्थी लिए जा रहा हो और पक्षी शोक में डूबे उसकी शवयात्रा में शामिल हो गए हों. कुएँ में वर्षों से उसकी सतह पर अटकी प्रतिध्वनियाँ रुक-रुककर पुकार रही हैं,‘‘गिरधारीला! गिरधारीलाल...’’

साभार - बीबीसी हिंदी

मधुसूदन आनंद
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