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मंगलवार, 28 जुलाई 2009

मन की गांठें


एक व्यापारी के पास पांच ऊंट थे, जिन पर सामान लादकर वह शहर-शहर घूमता और कारोबार करता। एक बार लौटते हुए रात हो गई। वह एक सराय पर रुका औ

र एक पेड़ से ऊंटों को बांधने लगा। चार ऊंट तो बंध गए मगर पांचवें के लिए रस्सी कम पड़ गई। व्यापारी परेशान हो गया। जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने सराय मालिक से मदद मांगने की सोची। तभी उसे सराय के दरवाजे पर एक फकीर मिला, जिसने व्यापारी से पूछा, 'बताओ, क्या परेशानी है?' व्यापारी ने उसे अपनी समस्या बताई तो वह जोर से हंसा। फिर उसने कहा, 'पांचवें ऊंट को भी उसी तरह बांधो जिस तरह बाकी ऊंटों को बांधा है।' व्यापारी बोला, 'मगर रस्सी कहां है?' फकीर ने कहा, 'उसकी कोई जरूरत नहीं है। उसे कल्पना की रस्सी से बांधो। मतलब बांधने का अभिनय करो।' व्यापारी ने वैसा ही किया। उसने ऊंट के गले में रस्सी का काल्पनिक फंदा डाला और उसका दूसरा सिरा पेड़ से बांध दिया। ऐसा करते ही ऊंट आराम से बैठ गया।

सुबह उठकर बंधे हुए ऊंटों को व्यापारी ने खोला। ऊंट उठकर चल दिए। व्यापारी ने उस ऊंट को भी हांका जिसे काल्पनिक रस्सी से बांधा था लेकिन वह हिला तक नहीं। व्यापारी ने उसे देर तक पुचकारा मगर वह नहीं उठा। गुस्से में आकर व्यापारी ने उसे डंडे मारने शुरू कर दिए। तभी फकीर आ पहुंचा। उसने पूछा, 'इस पर क्यों जुल्म ढा रहे हो?' व्यापारी ने कहा, 'यह उठता ही नहीं।' इस पर फकीर बोला, 'उठेगा कैसे। इसे तो तुमने बांध रखा है।' व्यापारी ने कहा, 'पर मैंने तो बांधने का अभिनय किया था।' फकीर ने मुस्कराकर कहा, 'अब इसे खोलने का अभिनय करो।' ऐसा करते ही ऊंट उठकर चल पड़ा। फकीर ने कहा, 'जिस तरह यह ऊंट अदृश्य रस्सियों से बंधा हुआ था उसी तरह लोग रूढ़ियों से बंधे होते हैं, आगे बढ़ना नहीं चाहते।'

(सूर्या सिन्हा की किताब 'कहानियां बोलती हैं' से)

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