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मंगलवार, 28 जुलाई 2009

संत की सीख


यह उस समय की कथा है , जब गुलामी प्रथा प्रचलित थी। एक मस्तमौला संत थे। वह हर समय ईश्वर के स्मरण में लगे रहते थे। एक बार वह किसी जंगल से गुजर रहे थे, तभी गुलामों का कारोबार करने वाले एक गिरोह की निगाह संत पर पड़ी। गिरोह के सरगना ने जब संत का स्वस्थ शरीर देखा तो सोचा कि इस व्यक्ति की अच्छी कीमत मिल जाएगी। उसने तय किया कि उन्हें पकड़कर बेच दिया जाए। उसके इशारे पर गिरोह के सदस्यों ने संत को घेर लिया। संत ने कोई विरोध नहीं किया।
गिरोह के सदस्यों ने जब संत को बांधा, तब भी संत चुप्पी साधे रहे। संत की चुप्पी देखकर एक आदमी से रहा नहीं गया। उसने पूछा, 'हम तुम्हें गुलाम बना रहे हैं और तुम शांत हो। तुम हमारा विरोध क्यों नहीं कर रहे?' संत ने जवाब दिया, 'मैं तो जन्मजात मालिक हूं। कोई मुझे गुलाम नहीं बना सकता। इसलिए मैं क्यां चिंता करूं।' गिरोह के सदस्य संत को गुलामों के बाजार में ले गए और आवाज लगाई, 'एक हट्टा-कट्टा इंसान लाए हैं। किसी को गुलाम की जरूरत हो तो बोली लगाओ।' यह सुनना था कि संत ने उससे भी अधिक जोर से आवाज लगाई, 'यदि किसी को मालिक की जरूरत हो तो मुझे खरीद लो। मैं अपनी इंद्रियों का मालिक हूं। गुलाम तो वे हैं जो इंद्रियों के पीछे भागते हैं और शरीर को ही सब कुछ समझते हैं।'
संत की आवाज उधर से गुजर रहे उनके भक्तों ने सुनी। वे समझ गए कि यह पुकारने वाला कोई अवश्य ही आत्मज्ञानी व्यक्ति है। वे सभी भक्त संत के चरणों में झुक गए। भक्तों की भीड़ देखकर गिरोह के सदस्य घबरा गए और संत को वहीं छोड़कर भागने लगे। उनके भक्तों ने उन्हें पकड़ लिया पर संत ने उन्हें छोड़ देने को कहा। गिरोह के सरगना ने संत से माफी मांगी और अपना यह धंधा छोड़ देने का संकल्प किया।

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