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रविवार, 5 जुलाई 2009

चरणदास चोर


'चरणदास चोर' यह फिल्म मैंने दो साल पहले देखी थी। बहुत प्यारी फिल्म है। फिल्म देखने के बाद मैंने तय किया था कि किसी भी हाल में सच बोलूँगा। यह फिल्म का प्रभाव है। फिल्म सिर्फ यही एक बातनहीं बताती बल्कि और भी कई बातें सिखाती हैं।

फिल्म शुरू करने के पहले कहानी के बारे में भी कुछ मजेदार बातें जान लो। जैसे इसकी असल कहानी एक राजस्थानी लोककथा के आधार पर विजयदान देथा ने लिखी। वे विजयदान देथा की कहानी पर हबीब तनवीर साहिब ने छत्तीसगढ़ का लोकरंग मिलाकर 'चरणदास चोर' नाटक करने का सोचा।

जब श्याम बेनेगल ने अपने शुरुआती वर्षों में अंकुर के बाद बच्चों के लिए फिल्म बनाने का सोचा तो उन्हें भी यही कहानी पसंद आई। श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में चरणदास की भूमिका के लिए नाचा के श्रेष्ठ कलाकार लालूराम को चुना था। यह मध्यप्रदेश में बनी फिल्म है जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग नहीं हुआ था तब। तो आओ इस फिल्म की बात शुरू करते हैं।

चरणदास चोर एक चोर की मजेदार कहानी है। यह चोर ही कहानी का हीरो है। और इस चोर का नाम है चरणदास। एक बार पुलिस से बचने के लिए चरणदास एक साधु के पास जा पहुँचता है। चरणदास साधु को गुरु मान लेता है। साधु चरणदास से पाँच वचन लेता है। इनमें पहले चार वचन इस तरह हैं - सोने-चाँदी की थाली में नहीं खाऊँगा, हाथी-घोड़े के जुलूस में सवारी नहीं करूँगा, कोई रानी भी मुझसे शादी करना चाहे तो मना कर दूँगा और कोई राजा बनाना चाहेगा तो नहीं बनूँगा।

चरणदास ये चार वचन यह सोचकर देता है कि उसके जीवन में कहाँ-कभी ऐसे मौके आने वाले हैं। साधु बाबा भी उससे कहते हैं कि तूने जो वचन दिए हैं वे बातें तेरे जीवन में कहाँ होने वाली हैं। इसके बाद साधु बाबा कहते हैं कि मेरी तरफ से एक वचन दे कि तू चोरी करना छोड़ देगा।

इस पर चरणदास कहता है कि गुरुदेव वह तो मेरा धंधा है। चोरी करना छोड़ दूँगा तो खाऊँगा क्या? फिर पाँचवाँ वचन सच बोलने का देकर वह साधु से बिदा लेता है। चरणदास के ये पाँच वचन ही कहानी को आगे बढ़ाते हैं। फिल्म आगे बढ़ती है। चरणदास के साथ उसका शागिर्द बुद्धू धोबी भी है। दोनों गाँव में खूब चोरियाँ करते हैं। पर दोनों उतने बुरे भी नहीं हैं क्योंकि वे अमीरों का धन लूटकर गरीबों को बाँट देते हैं। दोनों के दिन इस तरह कट रहे थे। एक बार वे राजमहल का रुख करते हैं। बुद्धू धोबी की मदद से चरणदास भेष बदलकर महल में प्रवेश करता है। चरणदास शाही खजाने से अपनी जरूरत के हिसाब से पाँच स्वर्ण मुद्राएँ चुरा लेता है।

चोरी सिर्फ चरणदास ही नहीं करता बल्कि महल का एक कर्मचारी भी पाँच स्वर्ण मुद्राएँ चुराकर अपने पास रख लेता है। इन मुद्राओं का आरोप भी चरणदास पर भी लगता है। चरणदास महल में बुलाया जाता है। वह पाँच स्वर्ण मुद्राएँ चुराने की बात मान लेता है। बाकी बची पाँच स्वर्ण मुद्रा का रहस्य खुल जाता है और कर्मचारी को सजा हो जाती है। चरणदास के सच बोलने से रानी केलावती प्रभावित होती है। रानी केलावती बनी है स्मिता पाटिल। वे जुलूस भेजकर चरणदास को बुलाती हैं।

सोने-चाँदी की थाली में भोजन परोसती हैं, राजा बनाना चाहती हैं और आखिर में शादी का प्रस्ताव रखती है। चरणदास ने तो इन चीजों से दूर रहने का वचन दिया था। इसलिए वह इन प्रस्तावों को ठुकरा देता है। अब रानी गुस्से में आकर चरणदास चोर को मार डालने का हुक्म देती है। सिपानी रानी के हुक्म का पालन करते हैं। मरने के बाद चरणदास चोर यमराज के दरबार में पहुँचता है। उसके पीछे-पीछे बुद्धू धोबी भी रहता है। बुद्धू चित्रगुप्त के बहीखाते से अपने नाम का पन्ना फाड़ देता है और फिर वे वापस भाग निकलते हैं। तो इस तरह वे यमराज से बच
जाते हैं। चोर की जीत पर बहुत खुशी होती है।

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